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________________ 151 प्रारंभ में मंगल की आवश्यकता और उसकी व्युत्पत्ति को स्पष्ट करने के साथ ही दशवैकालिक की रचना क्यों की गई इसेस्पष्ट करतेहुए सय्यंभव और उनके पुत्र मनक पूर्ण कथानक का भी उल्लेख किया है। प्रथम अध्याय की टीका में आचार्य नेतप के प्रकारों की चर्चा करतेहुए ध्यान के चारों प्रकारों का सुंदर विवेचन प्रस्तुत किया है। इस प्रथम अध्याय की टीका में प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण आदि अनुमान के विभिन्न अवयवों एवं हेत्वाभासों की भी चर्चा के अतिरिक्त उन्होंनेइसमें निक्षेप सिद्धांतों का भी विवेचन किया है। दूसरे अध्ययन की वृत्ति में तीन योग, तीन करण, चार संज्ञा, पांच इंद्रिय, पांच स्थावरकाय, दस प्रकार का श्रमण धर्म और 18000 शीलांगों का भी निर्देश मिलता है। साथ ही इसमें रथनेमि और राजीमती के उत्तराध्ययन में आए हुए कथानक का भी उल्लेख है। तृतीय अध्ययन की वृत्ति में महत् और क्षुल्लक शब्द के अर्थ को स्पष्ट करने के साथ ही ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चरित्राचार, तपाचार और वीर्याचार कोस्पष्ट किया गया है तथा कथाओं के चार प्रकारों कोउदाहरण सहित समझाया गया है। चतुर्थ अध्ययन की वृत्ति में पंचमहाव्रत और रात्रिभोजन - विवरण की चर्चा के साथ-साथ जीव के स्वरूप पर भी दार्शनिक दृष्टि सेविचार किया गया है। इसमें भाष्यगत अनेक गाथाएं भी उद्धृत की गई हैं। इसी प्रकार पंचम अध्ययन की वृत्ति में 18 स्थाणु अर्थात् व्रत-षट्क, काय-षट्क, अकल्प्य भोजन- वर्जन, गृहभाजनवर्जन, पर्यकवर्जन, निषिध्यावर्जन, स्नानवर्जन और शोभावर्जन का उल्लेख हुआ है। षष्ठ अध्ययन में क्षुल्लकाचार का विवेचन किया गया है। सप्तम अध्ययन की वृत्ति में भाषा की शुद्धिअशुद्धि का विचार है। अष्टम अध्ययन की वृत्ति में आचार - प्रणिधि की प्रक्रिया एवं फ्ल का प्रतिपादन है। नवम अध्ययन की वृत्ति में विनय के प्रकार और विनय के फ्ल तथा अविनय सेहोनेवाली हानियों का चित्रण किया गया है। दशम अध्ययन की वृत्ति भिक्षु के स्वरूप की चर्चा करती है । दशवैकालिक वृत्ति के अंत में आचार्य अपनेको महत्तरा याकिनी का धर्मपुत्र कहा है । 2. आवश्यक वृत्ति - यह वृत्ति आवश्यक निर्युक्ति पर आधारित है। आचार्य हरिभद्र नेइसमें आवश्यक सूत्रों का पदानुसरण न करतेहुए स्वतंत्र रीति सेनिर्युक्तिं गाथाओं का विवेचन किया है। निर्युक्ति की प्रथम गाथा की व्याख्या करते हुए आचार्य नेपांच प्रकार के ज्ञान का स्वरूप प्रतिपादित किया है। इसी प्रकार मति, श्रुत, अवधि, मनः पर्यय और केवल की भी भेद-प्रभेदपूर्वक व्याख्या की गई है। सामायिक
SR No.006191
Book TitleJain Sahityakash Ke Aalokit Nakshatra Prachin Jainacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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