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48. योगदृष्टिसमुच्चया 49. योगबिन्दु। 50. योगशतक। 51. लग्नशुद्धि। 52. लोकतत्त्वनिर्णय। 53. लोकबिन्दु। 54. विंशतिविंशिका। 55. वीरस्तव। 56. वीरांगदकथा। 57. वेदबाह्यतानिराकरण। 58. व्यवहारकल्प। 59. शास्त्रवार्तासमुच्चयसटीक। 60. श्रावकप्रज्ञप्तिवृत्ति। 61. श्रावकधर्मतंत्र। 62. षड्दर्शनसमुच्चया 63. षोडशक। 64. समकित पचासी। 65. संग्रहणीवृत्ति। 66. संमत्तसित्तिरी। 67. संबोधसित्तरी। 68. समराइच्चक हा। 69. सर्वज्ञसिद्धिप्रकरणसटीक। 70. स्याद्वादकुचोद्यपरिहार।
. किंतु इनमें कुछ ग्रंथ ऐसेभी जिन्हें भवविरहांक' समदर्शी आचार्य हरिभद्र की कृति है, ऐसा नहीं कहा जा सकता है। आगेहम उन्हीं कृतियों का संक्षिप्त परिचय देरहेहैं जोनिश्चित रूप सेसमदर्शी एवं भव-विरहांक सेसूचित यकिनीसूनु हरिभद्र द्वारा प्रणीत हैं। आगमिक व्याख्याएं
• जैसा कि हमनेपूर्व में निर्देश किया है, हरिभद्र जैन आगमों की संस्कृत में व्याख्या लिखनेवालेप्रथम आचार्य हैं। आगमों की व्याख्या के संदर्भ में उनके निम्न ग्रंथ उपलब्ध हैं - ___ (1) दशवैकालिक वृत्ति, (2) आवश्यक लघुवृत्ति, (3) अनुयोगद्वार वृत्ति, (4) नन्दी वृत्ति, (5) जीवाभिगमसूत्र लघुवृत्ति, (6) चैत्यवंदनसूत्र वृत्ति (ललितविस्तरा) और (7) प्रज्ञापनाप्रदेशव्याख्या।
___ इनके अतिरिक्त आवश्यक सूत्र बृहत्वृत्ति और पिण्डनियुक्ति वृत्ति के लेखक भी आचार्य हरिभद्र मानेजातेहैं, किंतु वर्तमान में आवश्यक वृत्ति अनुपलब्ध है। जोपिण्डनियुक्ति टीका मिलती है उसकी उत्थानिका में यह स्पष्ट उल्लेख है कि इस ग्रंथ का प्रारम्भ तोहरिभद्र नेकिया था, किंतु वेइसेअपनेजीवन-काल में पूर्ण नहीं कर पाए, उन्होंनेस्थापनादोष तक की वृत्ति लिखीथी, उसके आगेकिसी वीराचार्य नेलिखी।
आचार्यहरिभद्र द्वारा विरचित व्याख्या ग्रंथों कासंक्षिप्त परिचय इस प्रकार है
1. दशवकालिक वृत्ति - यह वृत्ति शिष्यबोधिनी या बृहद्वृत्ति के नाम सेभी जानी जाती है। वस्तुतः यह वृत्ति दशवैकालिक सूत्र की अपेक्षा उस पर भद्रबाहुविरचित नियुक्ति पर है। इसमें आचार्य नेदशवैकालिक शब्द का अर्थ, ग्रंथ के