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________________ 148 अंतर है। सम्बोधप्रकरण में वेसीधेफ्टकारतेहैं जब कि धूर्ताख्यान में व्यंग्यात्मक शैली में। इसमें हरिभद्र की एक मनोवैज्ञानिक दृष्टि छिपी हुई है। हमें जब अपनेघर के किसी सदस्य कोकुछ कहना होता है तोपरोक्ष रूप में तथा सभ्यशब्दावली का प्रयोग करतेहैं। हरिभद्र धूर्ताख्यान में इस दूसरी व्यंग्यपरक शिष्ट शैली का प्रयोग करतेहैं और अन्य परम्परा के देव और गुरुपरसीधाआक्षेप नहीं करतेहैं। दूसरेधूर्ताख्यान, शास्त्रवार्तासमुच्चय, योगदृष्टिसमुच्चय, लोकतत्त्वनिर्णय, सावयपण्णत्ति आदि सेयह भी स्पष्ट होजाता है कि आराध्य या उपास्य के नाम के सम्बंध में हरिभद्र के मन में कोई आग्रह नहीं है, मात्र आग्रह है तोइस बात का कि उसका चरित्र निर्दोष और निष्कलंक हो। धूर्ताख्यान में उन्होंनेउन सबकी समालोचना की है जोअपनी वासनाओं की पुष्टि के निमित्त अपनेउपास्य के चरित्र कोधूमिल करते हैं। हम यह अच्छी तरह जानतेहैं कि कृष्ण के चरित्र में राधाऔर गोपियों कोडाल कर हमारेपुरोहित वर्ग नेक्या-क्या नहीं किया? हरिभद्र इस सम्बंध में सीधेतोकुछ नहीं कहतेहैं, मात्र एक प्रश्न चिह्न छोड़ देतेहैं कि सराग और सशस्त्र देव में देवत्व (उपास्य) की गरिमा कहां तक ठहर पाएगी। अन्य परम्पराओं के देव और गुरु के सम्बंध में उनकी सौम्य और व्यंग्यात्मक शैली जहां पाठक कोचिंतन के लिए विवश कर देती है, वहीं दूसरी ओर वह उनके क्रांतिकारी, साहसी व्यक्तित्व कोप्रस्तुत कर देती है। हरिभद्र सम्बोधप्रकरण में स्पष्ट कहतेहैं कि रागी-देव, दुराचारी-गुरु और दूसरों कोपीड़ा पहुंचानेवाली प्रवृत्तियों कोधर्म मानना, धर्म साधना के सम्यक् स्वरुप कोविकृत करना है। अतः हमें मिथ्या विश्वासों सेऊपर उठना होगा। इस प्रकार हरिभद्र जनमानस का अंधविश्वासों सेमुक्त करानेका प्रयास कर क्रांतदर्शी का प्रमाण प्रस्तुत करतेहैं। वस्तुतः हरिभद्र के व्यक्तित्व में एक ओर उदारता और समभाव हैं तोदूसरी ओर सत्यनिष्ठा और स्पष्टवादिता भी है। उनका व्यक्तित्व अनेक सद्गुणों का एक पूंजीभूत स्वरूप है। वेपूर्वाग्रह या पक्षाग्रह सेमुक्त हैं, फिर भी उनमें सत्याग्रह है जोउनकी कृतियों में स्पष्टतः परिलक्षित होता है। __ आचार्य हरिभद्र की रचना धर्मिता अपूर्व है, उन्होंनेधर्म, दर्शन योग, कथा, साहित्य सभी पक्षों पर अपनी लेखनी चलाई। उनकी रचनाओं को3 भागों में विभक्त किया जा सकता है।
SR No.006191
Book TitleJain Sahityakash Ke Aalokit Nakshatra Prachin Jainacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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