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________________ 146 नहीं है। गर्भ-परिवर्तन की घटना कोछोड़कर, जिसेआज विज्ञान नेसम्भव बना दिया है, अविश्वसनीय और अप्राकृतिक रूप सेजन्म लेनेका जैन परम्परा में एक भी आख्यान नहीं है, जबकि पुराणों में ऐसेहजार सेअधिक आख्यान हैं। जैन-परम्परा सदैव तर्कप्रधान रही है, यही कारणथा कि महावीर की गर्भ-परिवर्तन की घटना कोभी उसके एक वर्ग नेस्वीकार नहीं किया। हरिभद्र के ग्रंथों का अध्ययन करनेसेयह स्पष्ट होजाता है कि येएक ऐसेआचार्य हैं जोयुक्ति कोप्रधानता देतेहैं। उनका स्पष्ट कथन है कि महावीर नेहमें कोई धन नहीं दिया है और कपिल आदि ऋषियों नेहमारेधन कोअपहरण नहीं किया है, अतः हमारा न तोमहावीर के प्रति राग है और न कपिल आदि ऋषियों के प्रति द्वेष। जिसकी भी बात युक्तिसंगत होउसेग्रहण करना चाहिए। इस प्रकार हरिभद्र तर्क कोही श्रद्धा का आधार मानकर चलतेहैं। जैन-परम्परा के अन्य आचार्यों के समान वेभी श्रद्धा के विषय देव, गुरु और धर्म के यथार्थ स्वरूप के निर्णय के लिए क्रमशः वीतरागता, सदाचार और अहिंसा कोकसौटी मानकर चलतेहैं और तर्क या युक्ति सेजोइन कसौटियों पर खरा उतरता है, उसेस्वीकार करनेकी बात कहतेहैं। जिस प्रकार सम्बोधप्रकरण में मुख्य रूप सेगुरु के स्वरूप की समीक्षा करतेहैं उसी प्रकार धूर्ताख्यान में वेपरोक्षतः देव या आराध्य के स्वरूप की समीक्षा करतेप्रतीत होतेहैं। वेयह नहीं कहतेहैं कि ब्रह्मा, विष्णु एवं महादेव हमारेआराध्य नहीं हैं। वेतोस्वयं ही कहतेहैं जिसमें कोई भी दोष नहीं है और जोसमस्त गुणों सेयुक्त है वह ब्रह्मा हो, विष्णु होया महादेव हो, उसेमैं प्रणाम करता हूं। उनका कहना मात्र यह है कि पौराणिकों नेकपोलकल्पनाओं के आधार पर उनके चरित्र एवं व्यक्तित्व कोजिस अतर्कसंगत एवं भ्रष्ट रूप में प्रस्तुत किया है उससेन केवल उनका व्यक्तित्व धूमिल होता है, अपितु वेजनसाधारण की अश्रद्धा का कारण बनतेहैं। धूर्ताख्यान के माध्यम सेहरिभद्र ऐसेअतर्कसंगत अंधविश्वासों सेजनसाधारण कोमुक्त करना चाहतेहैं, जिनमें आराध्य और उपास्य देवों कोचरित्रहीन के रूप में प्रस्तुत किया गया है। उदाहरण के रूप में चंद्र, सूर्य, इंद्र, वायु, अग्नि और धर्म काकुमारी एवं बाद में पाण्डुपत्नी कुन्तीसेयौन-सम्बंध स्थापित कर पुत्र उत्पन्न करना, गौतम ऋषि की पत्नी अहिल्या सेइंद्र द्वारा अनैतिक रूप में यौन-सम्बंध स्थापित करना, लोकव्यापी विष्णु का कामी-जनों के समान गोपियों के लिए उद्विग्न होना आदि
SR No.006191
Book TitleJain Sahityakash Ke Aalokit Nakshatra Prachin Jainacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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