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येतुम्हारेजीवन, चारित्रबल और श्रद्धा सभी कोचौपट कर देंगे। हरिभद्र कोजिन-शासन के विनाश का खतरा दूसरों सेनहीं, अपनेही लोगों सेअधिकलगा। कहा भी है
इस घर कोआगलगगई घर के चिरागसे।
वस्तुतः एक क्रान्तदर्शी आचार्य के रूप में हरिभद्र का मुख्य उद्देश्य था जैन संघ में उनके युग में जोविकृतियां आगई थीं, उन्हें दूर करना। अतः उन्होंनेअपनेही पक्ष की कमियों कोअधिक गम्भीरता सेदेखा। जोसच्चेअर्थ में समाज-सुधारक होता है, जोसमाजिक जीवन में परिवर्तन लाना चाहता है, वह प्रमुख रूप सेअपनी ही कमियों कोखोजता है। हरिभद्र नेइस रूप में सम्बोधप्रकरण में एक क्रांतिकारी की भूमिका निभाई है। क्रांतिकारी के दोकार्य होतेहैं, एक तोसमाज में प्रचलित विकृत मान्यताओं की समीक्षा करना और उन्हें समाप्त करना, किंतु मात्र इतनेसेउसका कार्य पूरा नहीं होता है। उसका दूसरा कार्य होता है सत् मान्यताओं कोप्रतिष्ठित यापुनः प्रतिष्ठत करना। हम देखतेहैं कि आचार्य हरिभद्र नेदोनों बातों कोअपनी दृष्टि में रखा है।
उन्होंनेअपनेग्रंथ सम्बोधप्रकरण में देव, गुरु, धर्म, श्रावक आदि का सम्यक् स्वरूप कैसा होना चाहिए, इसकी भी विस्तृत व्याख्या की है। हरिभद्र नेजहां वेशधारियों की समीक्षा की है, वहीं आगमोक्त दृष्टि सेगुरु कैसा होना चाहिए, इसकी विस्तृत विवेचना भी की है। हम उसके विस्तार में न जाकर संक्षेप में यह कहेंगेकि हरिभद्र की दृष्टि में जोपांच महाव्रतों, पांच समितियों, तीन गुप्तियों के पालन में तत्पर है जोजितेन्द्रिय, संयमी, परिषहजयी, शुद्ध आचरण करनेवाला और सत्य मार्ग कोबतानेवाला है, वही सुगुरु है।"
हरिभद्र के युग में गुरु के सम्बंध में एक प्रकार का वैयक्तिक अभिनिवेश विकसित होगया था। कुलगुरु की वैदिक अवधारणा की भांति प्रत्येक गुरु के आसपास एक वर्ग एकत्रित होरहा था, जोउन्हें अपना गुरु मानता था तथा अन्य कोगुरु में स्वीकार नहीं करता था। श्रावकों का एक विशेष समूह एक विशेष आचार्य कोअपना गुरु मानता था, जैसा कि आज भी देखा जाता है। हरिभद्र नेइस परम्परा में साम्प्रदायिकता के दुरभिनिवेश के बीज देख लिए थे। उन्हें यह स्पष्ट लग रहा था कि इससेसाम्प्रदायिक अभिनिवेश दृढ़ होंगे। समाज विभिन्न छोटे-छोटे वर्गों में बंट जाएगा। इसके विकास का दूसरा मुख्य खतरा यह था कि गुणपूजक जैन धर्म व्यक्तिपूजक बन जाएगा और वैयक्तिक रागात्मकता के कारण चारित्रिक दोषों के