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का विनाश करते हैं, जबकि दुराचारी का सान्निध्य तोजन्म-जन्मांतर का विनाश कर देता है)।"
फिर भी ऐसा लगता है कि इस क्रान्तदर्शी आचार्य की बात अनसुनी होरही थी क्योंकि शिथिलाचारियों के अपनेतर्क थे। वेलोगों के सम्मुख कहते थे कि सामग्री (शरीर-सामर्थ्य) का अभाव है। वक्र जड़ों का काल है। दुषमा काल में विधि मार्ग के अनुरूप आचरण कठिन है। यदि कठोर आचार की बात कहेंगेतोकोई मुनि व्रत धारण नहीं करेगा। तीर्थोच्छेद और सिद्धांत के प्रवर्त्तन का प्रश्न है, हम क्या करें। उनके इन तर्कों सेप्रभावित होमूर्ख जन-साधारण कह रहा था कि कुछ भी होवेश तोतीर्थंकर प्रणीत है, अतः वंदनीय है । हरिभद्र भारी मन में सेमात्र यही कहते हैं कि मैं अपनेसिर की पीड़ा किससे कहूं।"
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किंतु यह तोप्रत्येक क्रांतिकारी की नियति होती है। प्रथम क्षण में जनसाधारण भी उसके साथ नहीं होता है। अतः हरिभद्र का इस पीड़ा सेगुजरना उनके क्रांतिकारी होने का ही प्रमाण है। सम्भवतः जैन- परम्परा में यह प्रथम अवसर था, जब जैन समाज के तथाकथित मुनि वर्ग कोइतना स्पष्ट शब्दों में किसी आचार्य नेलताड़ा हो। वेस्वयं दुःखी मन सेकहते हैं - हेप्रभु ! जंगल में निवास और दरिद्र का साथ अच्छा है, अरेव्याधि! और मृत्यु भी श्रेष्ठ है, किंतु इन कुशीलों का सान्निध्य अच्छा नहीं है। अरे! (अन्य परम्परा के) हीनाचारी का साथ भी अच्छा होसकता है, किंतु इन कुशीलों का साथ तोबिल्कुल ही अच्छा नहीं है। क्योंकि हीनाचारी तोअल्प नाश करता है, किंतु येतोशीलरूपी निधि का सर्वनाश ही कर देते हैं। वस्तुतः इस कथन के पीछे आचार्य की एक मनोवैज्ञानिक दृष्टि है। क्योंकि जब हम किसी कोइतर परम्परा का मान लेते हैं तोउसकी कमियों कोकमियों के रूप में ही जानते हैं । अतः उसके सम्पर्क के कारण संघ में उतनी विकृति नहीं आती है, जितनी जैन मुनि का वेश धारण कर दुराचार का सेवन करनेवालेके सम्पर्क से। क्योंकि उसके सम्पर्क सेउस पर श्रद्धा होनेपर व्यक्ति का और संघ का जीवन पतित बन जाएगा। यदि सद्भाग्य से अश्रद्धा हुई तोवह जिन प्रवचन के प्रति अश्रद्धा कोजन्म देगा ( क्योंकि सामान्यजन तोशास्त्र नहीं वरन् उस शास्त्र के अनुगामी का जीवन देखता है) फ्लतः उभयतोसर्वनाश का कारण होगी, अतः आचार्य हरिभद्र बार- बार जिन - शासन - रसिकों कोनिर्देश देते हैं- ऐसेजिन शासन के कलंक, शिथिलाचारियों और दुराचारियों की तोछाया से भी दूर रहो, क्योंकि