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________________ 142 पृष्ठों में चर्चा की है, हरिभद्र तोइतने उदार हैं कि वे अपनी विरोधी दर्शन - परम्परा के आचार्यों कोभी महामुनि, सुवैद्य जैसेउत्तम विशेषणों से सम्बोधित करते हैं, किंतु वेउतनेही कठोर होना भी जानते हैं, विशेष रूप सेउनके प्रति जोधार्मिकता का आवरण डालकर भी अधार्मिक हैं। ऐसे लोगों के प्रति यह क्रांतिकारी आचार्य कहता है - ऐसे दुश्शील, साध-पिशाचों कोजोभक्तिपूर्वक वंदन नमस्कार करता है, क्या वह महापाप नहीं है?" अरे ! इन सुखशील स्वच्छन्दाचारी, मोक्ष - मार्ग के बैरी, आज्ञाभ्रष्ट साधुओं को संयति अर्थात् मुनि मत कहो। अरे! देवद्रव्य के भक्षण में तत्पर, उन्मार्ग के पक्षधर और साधुजनों कोदूषित करनेवालेइन वेशधारियों कोसंघ मत कहो। अरे, इन अधर्म और अनीति के पोषक, अनाचार का सेवन करनेवाले और साधुता के चोरों कोसंघ मत कहो । जोऐसे (दुराचारियों के समूह ) कोराग या द्वेष के वशीभूत होकर भी संघ कहता है उसे भी छेद- प्रायश्चित्त होता है। " हरिभद्र पुनः कहते हैं - जिनाज्ञा का अपलाप करनेवालेइन मुनि वेशधारियों के संघ में रहनेकी अपेक्षा तोगर्भवास और नरकवास कहीं अधिक श्रेयस्कर है। 43 44 हरिभद्र की यह शब्दावली इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि धर्म के नाम पर अधर्म का पोषण करनेवाले अपनेही सहवर्गियों के प्रति उनके मन में कितना विद्रोह एवं आक्रोश है। वेतत्कालीन जैन संघ कोस्पष्ट चेतावनी देते हैं कि ऐसेलोगों कोप्रश्रय मत दो, उनका आदर-सत्कार मत करो, अन्यथा धर्म का यथार्थ स्वरूप धूमिल होजाएगा। वेकहतेहैं कि यदि आम और नीम की जड़ों का समागम होजाए तोनीम का कुछ नहीं बिगड़ेगा, किंतु उसके संसर्ग में आम का अवश्य विनाश होजाएगा।" वस्तुतः हरिभद्र की यह क्रान्तदर्शिता यथार्थ ही है, क्योंकि दुराचारियों के सान्निध्य में चारित्रिक पतन की सम्भावना प्रबल होती है। वेस्वयं कहते हैं, जोजिसकी मित्रता करता है, तत्काल वैसा होजाता है। तिल जिस फूल में डाल दिए जाते हैं उसी की गंध के होजाते हैं । " हरिभद्र इस माध्यम से समाज कोउन लोगों कोसतर्क रहनेका निर्देश देते हैं जो धर्म का नकाब डालेअधर्म में जीतेहैं, क्योंकि ऐसेलोग दुराचारियों की अपेक्षा भी समाज के लिए अधिक खतरनाक हैं। आचार्य ऐसेलोगों पर कटाक्ष करतेहुए कहते हैं- जिस प्रकार कुलवधू का वेश्या के घर जाना निषिद्ध है, उसी प्रकार सुश्रावक के लिए हीनाचारी यति का सान्निध्य निषिद्ध है। दुराचारी अगीतार्थ के वचन सुननेकी अपेक्षा तोदृष्टि विष सर्प का सान्निध्य या हलाहल विष का पान कहीं अधिक अच्छा है (क्योंकि येतोएक जीवन
SR No.006191
Book TitleJain Sahityakash Ke Aalokit Nakshatra Prachin Jainacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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