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________________ 139 सेकहतेहैं कि यह जोभागवत धर्म है, वही विशुद्धि का हेतु है।” यद्यपिहरिभद्र के इस कथन का यह आशय भी नहीं लेना चाहिए कि हरिभद्र कर्मकाण्ड के पूर्णतः विरोधी हैं। उन्होंनेस्वयं ही सम्बोधप्रकरण की लगभग 50-60 गाथाओं में आत्मशुद्धि-निमित्त जिनपूजा और उसमें होनेवाली आशातनाओं का सुंदर चित्रण किया है। मात्र उनका प्रतिपाद्य यह है कि इन कर्मकाण्डों का मूल्य भावना-शुद्धि के आधार पर ही निर्धारित होता है। यदि धार्मिक जीवन में वासना और कषायों का शमन और आत्म-विशुद्धि नहीं होती है तोकर्मकाण्ड का कोई मूल्य नहीं रह जाता है। वस्तुतः हरिभद्र साध्य की उपलब्धि के आधार पर ही साधन का मूल्यांकन करतेहैं। वेउन विचारकों में से हैं जिन्हें धर्म के मर्म की पहचान है, अतः वेधर्म के नाम पर ढोंग, आडम्बर और लोकैषणा की पूर्ति के प्रयत्नों कोकोई स्थान नहीं देना चाहतेहैं। यही उनकी क्रान्तधर्मिता है। हरिभद्र के युग में जैन-परम्परा में चैत्यवास का विकास होचुका था। अपनेआपकोश्रमण और त्यागी कहनेवाला मुनिवर्ग जिनपूजा और मंदिर-निर्माण के नाम पर न केवल परिग्रह का संचय कर रहा था, अपितु जिनद्रव्य (जिन प्रतिमा कोसमर्पित द्रव्य) का अपनी विषय-वासनाओं की पूर्ति में उपयोग भी कर रहा था। जिन-प्रतिमा और जिन-मंदिर तथाकथित श्रमणों की ध्यान-भूमि या साधना-भूमि न बनकर भोग-भूमि बन रहेथे। हरिभद्र जैसेक्रांतिदर्शीआचार्य के लिए यह सब देख पाना सम्भव नहीं था, अतः उन्होंनेइसके विरोध में अपनी कलम चलानेका निर्णय लिया। वेलिखतेहैं- द्रव्य-पूजा तोगृहस्थों के लिए है, मुनि के लिए तोकेवल भाव-पूजा है। जोकेवल मुनि वेशधारी हैं, मुनि-आचार का पालन नहीं करतेहैं, उनके लिए द्रव्यपूजा जिन-प्रवचन की निंदा का कारण होनेसेउचित नहीं है (सम्बोधप्रकरण, 1/273)। वस्तुतः यहां हरिभद्र नेमंदिर-निर्माण, प्रतिष्ठा, पूजा आदि कार्यों में उलझनेपर मुनि-वर्ग का जोपतन होसकता था, उसका पूर्वानुमान कर लिया था यति संस्था के विकास सेउनका यह अनुमान सत्य ही सिद्ध हुआ। इस सम्बंध में उन्होंनेजोकुछ लिखा उसमें एक ओर उनके युग के समाज के प्रति उनकी आत्म-पीड़ा मुखर होरही है, तोदूसरी ओर उसमें एक धर्मक्रांति का स्वर भी सुनाई देरहा है। जिनद्रव्य कोअपनी वासना-पूर्ति का साधन बनानेवालेउन श्रावकों एवं तथाकथित श्रमणों कोललकारतेहुए वेकहतेहैं- जोश्रावक जिन-प्रवचन और ज्ञान-दर्शन गुणों की प्रभावना और वृद्धि करनेवालेजिन-द्रव्य का जिनाज्ञा के विपरीत उपयोग करतेहैं,
SR No.006191
Book TitleJain Sahityakash Ke Aalokit Nakshatra Prachin Jainacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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