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विषय-वासनाओं का पोषण होता हो, जहां घृणा-द्वेष और अहंकार के तत्त्व अपनी मुट्ठी में धर्म कोदबोचेहुए हों, उसेधर्म कहना धर्म की विडम्बना है। हरिभद्र की दृष्टि में वह धर्म नहीं, अपितु धर्म के नाम पर धर्म का आवरण डालेहुए कुछ अन्य अर्थात् अधर्म ही है। विषय-वासनाओं और कषायों अर्थात् क्रोधादि दुष्प्रवृत्तियों के त्याग के अतिरिक्त धर्म का अन्य कोई रूप होही नहीं सकता है। उन सभी लोगों की, जोधर्म के नाम पर अपनी वासनाओं और अहंकार के पोषण का प्रयत्न करतेहैं और मोक्ष कोअपनेअधिकार की वस्तु मानकर यह कहतेहैं कि मोक्ष केवल हमारेधर्म-मार्ग का आचरण करनेसेहोगा, समीक्षा करतेहुए हरिभद्र यहां तक कह देतेहैं कि धर्म-मार्ग किसी एक सम्प्रदाय की बपौती नहीं है, जोभी समभाव की साधना करेगा वह मुक्त होगा, वह चाहेश्वेताम्बर होया दिगम्बर, बौद्ध होया अन्य कोई । वस्तुतः उस युग में जब साम्प्रदायिक दुरभिनिवेशआज की भांति ही अपनेचरम सीमा पर थे, यह कहनान केवल हरिभद्र की उदारता की सदाशयता का प्रतीक है, अपितु उनके एक क्रान्तदर्शी आचार्य होनेका प्रमाण भी है। उन्होंनेजैन-परम्परा के निक्षेप के सिद्धांत कोआधार बनाकर धर्मकोभीचारभागों में विभाजित कर दिया"
(1) नामधर्म - धर्म का वह रूप जोधर्म कहलाता है, किंतु जिसमें धार्मिकता का कोई लक्षण नहीं है। वह धर्मतत्त्वसेरहित मात्र नाम का धर्म है।
(2) स्थापनाधर्म - जिन क्रियाकाण्डों कोधर्म मान लिया जाता है, वेवस्तुतः धर्म नहीं धार्मिकता के परिचायक बाह्य रूप मात्र हैं। पूजा, तप आदि धर्म के प्रतीक हैं, किंतु भावना के अभाव में वेवस्तुतः धर्म नहीं हैं। भावनारहित मात्र क्रियाकाण्डस्थापना धर्म है।
(3) द्रव्यधर्म - वेआचार-परम्पराएं जोकभी धर्म थीं या धार्मिक समझी जाती थीं, किंतु वर्तमान संदर्भ में धर्म नहीं हैं। तत्त्वशून्य अप्रासंगिक बनी धर्म परम्पराएं ही द्रव्यधर्म हैं।
(4) भावधर्म - जोवस्तुतः धर्म है वही भाव धर्म है। यथा-समभाव की साधना, विषयकषायसेनिवृत्तिआदिभावधर्म हैं।
हरिभद्र धर्म के इन चार रूपों में भावधर्म कोही प्रधान मानतेहैं। वेकहतेहैं कि जिस प्रकार तक्रादि के संयोग, मंथन की प्रक्रिया और अग्नि द्वारा परितापन के फलस्वरूप दूध रूपी आत्मा घृत रूप परमात्मतत्त्व कोप्राप्त होता है। 32 वेस्पष्ट रूप