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दोहन करतेहैं अथवा भक्षण करतेहैं, वेक्रमशः भवसमुद्र में भ्रमण करनेवाले, दुर्गति में जानेवालेऔर अनन्त संसारी होतेहैं।" इसी प्रकार जोसाधु जिनद्रव्य का भोजन करता है वह प्रायश्चित् का पात्र है। वस्तुतः यह सब इस तथ्य काभीसूचक है कि उस युग में धर्म साधना का माध्यम न रहकर वासना-पूर्ति का माध्यम बन रहा था। अतः हरिभद्र जैसेप्रबुद्ध आचार्य के लिए उसके प्रति संघर्ष करना आवश्यक होगया।
सम्बोधप्रकरण में हरिभद्र नेअपनेयुग के जैन साधुओं का जोचित्रण किया है वह एक ओर जैन धर्म में साधु-जीवन के नाम पर जोकुछ होरहा था उसके प्रति हरिभद्र की पीड़ा कोप्रदर्शित करता है, तोदूसरी ओर यह भी बताता है कि हरिभद्र तत्कालीन परिस्थितियों के मूक दर्शक और तटस्थ समीक्षक ही नहीं थे, अपितु उनके मन में सामाजिक और धार्मिक क्रांति की एक तीव्र आकांक्षाभी थी। वेअपनी समालोचना के द्वाराजनसमाज में एक परिवर्तन लाना चाहतेथे।
तत्कालीन तथाकथित श्रमणों के आचार-व्यवहार पर कटाक्ष करतेहुए वेलिखतेहैं कि जिन-प्रवचन में पार्श्वस्थ, अवसन्न, कुशील, संसक्त और यथाछन्न (स्वेच्छाचारी)- येपांचों अवन्दनीय हैं। यद्यपि येलोगजैन मुनि का वेशधारण करतेहैं, किंतु इनमें मुनित्व का लक्षण नहीं है। मुनि-वेश धारण करके भी क्या-क्या दुष्कर्म करतेथे, इसका सजीव चित्रण तोवेअपनेग्रंथ सम्बोधप्रकरण के द्वितीय अधिकार में 'कुगुरु गुर्वाभास पार्श्वस्थ आदि स्वरूप' के अंतर्गत 171 गाथाओं में विस्तार सेकरतेहैं। इस संक्षिप्त निबंध में उन सबकी समग्र चर्चा एवं व्याख्या करना तोसम्भव नहीं है, फिर भी हरिभद्र की कठोर समालोचक दृष्टि का परिचय देनेके लिए कुछ विवरण देना भी आवश्यक है। वेलिखतेहैं, येमुनि-वेशधारी तथाकथित श्रमण आवास देनेवालेका या राजा के यहां का भोजन करतेहैं, बिना कारण ही अपनेलिए लाए गए भोजन कोस्वीकार करतेहैं, भिक्षाचर्या नहीं करतेहैं, आवश्यक कर्म अर्थात् प्रतिक्रमण आदि श्रमण-जीवन के अनिवार्य कर्त्तव्य का पालन नहीं करतेहैं, कौतुक कर्म, भूतकर्म, भविष्य-फ्ल, एवं निमित्त-शास्त्र के माध्यम सेधन-संचय करतेहैं, येघृतमक्खन आदि विकृतियों कोसंचित करके खातेहैं, सूर्य-प्रमाण भोजी होतेहैं अर्थात् सूर्योदय सेसूर्यास्त तक अनेक बार खातेरहतेहैं, न तोसाधू-समूह (मण्डली) में बैठकर भोजन करतेहैं और न केशलुंचन करतेहैं।" फिर येकरतेक्या हैं ? हरिभद्र लिखतेहैं कि