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________________ 135 देशकालगत भिन्नता के आधार पर होकर तत्त्वतः एक ही होती है। 26 वस्तुतः विषयवासनाओं से आक्रान्त लोगों के द्वारा ऋषियों की साधनागत विविधता के आधार पर स्वयं धर्म-साधना की उपादेयता पर कोई प्रश्नचिह्न लगाना अनुचित ही है। वस्तुतः हरिभद्र की मान्यता यह है कि धर्म - साधना के क्षेत्र में बाह्य आचारगत भिन्नता या उपास्य की नामगत भिन्नता बहुत महत्त्वपूर्ण नहीं है । महत्त्वपूर्ण यह है कि व्यक्ति अपने जीवन में वासनाओं का कितना शमन कर सका है, उसकी कषाएं कितनी शांत हुई हैं और उसके जीवन में समभाव और अनासक्ति कितनी सधी है। मोक्ष के सम्बंध में उदार दृष्टिकोण हरिभद्र अन्य धर्माचार्यों के समान यह अभिनिवेश नहीं रखते हैं कि मुक्ति केवल हमारी साधना पद्धति या हमारेधर्म सेही होगी। उनकी दृष्टि में मुक्ति केवल हमारे धर्म में है - ऐसी अवधारणा ही भ्रान्त है । वेस्पष्ट रूप सेकहते हैं कि - - नासाम्बरत्वेन सिताम्बरत्वे, न तर्कवादेन च तत्त्ववादे । न पक्षसेवाश्रयेन मुक्ति, कषाय मुक्ति किल मुक्तिरेव ॥ अर्थात् मुक्ति न तोसफेद वस्त्र पहननेसेहोती है, न दिगम्बर रहनेसे, तार्किक वाद-विवाद और तत्त्वचर्चा सेभी मुक्ति प्राप्त नहीं होसकती। किसी एक सिद्धांत विशेष में आस्था रखनेया किसी व्यक्ति विशेष की सेवा करनेसे भी मुक्ति असम्भव है। मुक्ति तोवस्तुतः कषायों अर्थात् क्रोध, मान, माया और लोभ सेमुक्त होने से है। वेस्पष्ट रूप सेइस बात का प्रतिपादन करते हैं कि मुक्ति का आधार कोई धर्म, सम्प्रदाय अथवा विशेष वेशभूषा नहीं है। वस्तुतः जोव्यक्ति समभाव की साधना करेगा, वीतराग दशा प्राप्त करेगा, वह मुक्त होगा। उनके शब्दों में - सेयंबरोय आसंबरोय बुद्धोय अहव अण्णोवा । समभावभावि अप्पा लहइ मुक्खं न संदेहो । अर्थात् जोभी समभाव की साधना करेगा वह निश्चित ही मोक्ष को प्राप्त करेगा, फिर चाहे वह श्वेताम्बर होया दिगम्बर हो, बौद्ध होया अन्य किसी धर्म कोमाननेवाला हो । साधना के क्षेत्र में उपास्य का नाम- -भेद महत्त्वपूर्ण नहीं हरिभद्र की दृष्टि में आराध्य के नाम-भेदों कोलेकर धर्म के क्षेत्र में विवाद
SR No.006191
Book TitleJain Sahityakash Ke Aalokit Nakshatra Prachin Jainacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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