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________________ 136 _करना उचित नहीं है। लोकतत्त्वनिर्णय में वेकहतेहैं यस्यअनिखिलाश्च दोषानसन्ति सर्वेगुणाश्च विद्यन्ते। ब्रह्मावा विष्णुर्वा हरोजिनोवा नमस्तस्मै॥ वस्तुतः जिसके सभी दोष विनष्ट होचुके हैं और जिनमें सभी गुण विद्यमान हैं फिर उसेचाहेब्रह्मा कहा जाए, चाहेविष्णु, चाहेजिन कहा जाए, उसमें भेद नहीं। सभी धर्म और दर्शनों में उस परमतत्त्वयापरमसत्ता कोराग-द्वेष, तृष्णाऔर आसक्ति सेरहित विषय-वासनाओं सेऊ पर उठी हुई पूर्णप्रज्ञ तथा परम कारुणिक माना गया है, किंतु हमारी दृष्टि उस परमतत्त्व के मूलभूत स्वरूप पर न होकर नामों पर टिकी होती है और इसी के आधार पर हम विवाद करतेहैं। जब कि यह नामों का भेद अपनेआप में कोई अर्थ नहीं रखता है। योगदृष्टिसमुच्चय में वेलिखतेहैं कि. सदाशिवः परब्रह्म सिद्धात्मा तथतेतिच। शब्देस्तद् उच्यतेऽन्वर्थाद् एक एवैवमादिभिः॥ अर्थात् सदाशिव, परमब्रह्म, सिद्धात्मा, तथागत आदि नामों में केवल शब्द भेद हैं, उनका अर्थ तोएक ही है। वस्तुतः यह नामों का विवाद तभी तक रहता है जब तक हम उस आध्यात्मिक सत्ता की अनुभूति नहीं कर पातेहैं। व्यक्ति तब वीतराग, वीततृष्णा या अनासक्ति की भूमिका का स्पर्श करता है तब उसके सामनेनामों का यह विवाद निरर्थक होजाता है। वस्तुतः आराध्य सेनामों की भिन्नता भाषागत भिन्नता है, स्वरूपगत भिन्नता नहीं। जोइन नामों के विवादों में उलझता है, वह अनुभूति सेवंचित होजाता है। वेकहतेहैं कि जोउस परमतत्त्व की अनुभूति कर लेता है उसके लिए यह शब्दगत समस्त विवाद निरर्थक होजातेहैं। इस प्रकार हम देखतेहैं कि उदारचेता, समन्वयशील और सत्यनिष्ठ आचार्यों में हरिभद्र के समतुल्य किसी अन्य आचार्य कोखोज पाना कठिन है। अपनी इन विशेषताओं के कारणभारतीय दार्शनिकों के इतिहास में वेअद्वितीय और अनुपम हैं। क्रांतदर्शीसमालोचक: जैन परम्परा के संदर्भ में हरिभद्र के व्यक्तित्व के सम्बंध में यह उक्ति अधिक सार्थक है- 'कुसुमों सेअधिक कोमल और वज्र सेअधिक कठो।' उनके चिंतन में एक ओर उदारता है, समन्वयशीलता है, अपनेप्रतिपक्षी के सत्य कोसमझनेऔर स्वीकार करनेका विनम्र
SR No.006191
Book TitleJain Sahityakash Ke Aalokit Nakshatra Prachin Jainacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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