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सेपृथक् रखना चाहतेहैं। यद्यपि हरिभद्र नेकर्मकाण्डपरक ग्रंथ लिखेहैं, किंतु पं. सुखलाल संघवी नेप्रतिष्ठाकल्प आदि कोहरिभद्र द्वारा रचित माननेमें संदेह व्यक्त किया है। हरिभद्र के समस्त उपदेशात्मक साहित्य, श्रावक एवं मुनि - आचार सेसम्बंधित साहित्य कोदेखनेसेऐसा लगता है कि वेधार्मिक जीवन के लिए सदाचार पर ही अधिक बल देतेहैं। उन्होंने अपनेग्रंथों में आचार सम्बंधी जिन बातों का निर्देश किया है वेभी मुख्यतया व्यक्ति की चारित्रिक निर्मलता और कषायों के उपशमन के निमित्त ही हैं। जीवन में कषाएं उपशांत हों, समभाव सधेयही उनकी दृष्टि में साधना का मुख्य उद्देश्य है। धर्म के नाम पर पनपनेवालेथोथेकर्मकाण्ड एवं छद्य जीवन की उन्होंनेखुलकर निंदा की है और मुनिवेश में ऐहिकता का पोषण करनेवालों को आड़े हाथों लिया है, उनकी दृष्टि में धर्म साधना का अर्थ है
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अध्यात्मं भावना ध्यानं समता वृत्तिसंक्षयः । मोक्षेण योजनाद्योग एष श्रेष्ठोयथोत्तरम् ॥
- योगबिन्दु, 31
साधनागत विविधता में एकता का दर्शन
धर्म साधना के क्षेत्र में उपलब्ध विविधताओं का भी उन्होंनेसम्यक् समाधान खोजा है। जिस प्रकार 'गीता' में विविध देवों की उपासना कोयुक्तिसंगत सिद्ध करनेका प्रयत्न किया गया है, उसी प्रकार हरिभद्र नेभी साधनागत विविधताओं के बीच एक समन्वय स्थापित करनेका प्रयास किया है। वेलिखते हैं कि जिस प्रकार राजा के विभिन्न सेवक अपने आचार और व्यवहार में अलग-अलग होकर भी राजा के सेवक हैं - उसी प्रकार सर्वज्ञों द्वारा प्रतिपादित आचार-पद्धतियां बाह्यतः भिन्न-भिन्न होकर भी तत्त्वतः एक ही हैं। सर्वज्ञों की देशना में नाम आदि का भेद होता है, तत्त्वतः भेद नहीं होता है | 24
हरिभद्र की दृष्टि में आचारगत और साधनागत जोभिन्नता है वह मुख्य रूप सेदोआधारों पर है। एक साधकों की रुचिगत विभिन्नता के आधार पर और दूसरी नामों की भिन्नता के आधार पर। वेस्पष्ट रूप सेकहते हैं कि ऋषियों के उपदेश में जोभिन्नता है वह उपासकों की योग्यता के आधार पर है। जिस प्रकार वैद्य अलग-अलग व्यक्तियों कोउनकी प्रकृति की भिन्नता और रोग की भिन्नता के आधार पर अलग-अलग औषधि प्रदान करता है, उसी प्रकार महात्माजन भी संसाररूपी व्याधि हरण करने हेतु साधकों की प्रकृति के अनुरूप साधना की भिन्न-भिन्न विधियां बताते हैं। 25 वेपुनः कहतेहैं कि ऋषियों के उपदेश की भिन्नता, उपासकों की प्रकृतिगत भिन्नता अथवा