SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 137
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 131 अन्य दर्शनों के गम्भीर अध्येता एवं निष्पक्ष व्याख्याकार भारतीय दार्शनिकों में अपनेसेइतर परम्पराओं के गम्भीर अध्ययन की प्रवृत्ति प्रारम्भ में हमें दृष्टिगत नहीं होती है। बादरायण, जैमिनि आदि दिग्गज विद्वान् भी जब दर्शनों की समालोचना करते हैं, तोऐसा लगता है कि वेदूसरेदर्शनों को अपनेसतही ज्ञान के आधार पर भ्रान्तरूप में प्रस्तुत करके उनका खण्डन कर देते हैं। यह सत्य है कि अनैकान्तिक एवं समन्वयात्मक दृष्टि के कारण अन्य दर्शनों के गम्भीर अध्ययन की परम्परा का विकास सर्वप्रथम जैन दार्शनिकों नेही किया है। ऐसा लगता है कि हरिभद्र समालोच्य प्रत्येक दर्शन का ईमानदारीपूर्वक गम्भीर अध्ययन किया था, क्योंकि इसके बिना वेन तोउन दर्शनों में निहित सत्यों कोसमझा सकतेथे, न उनकी स्वस्थ समीक्षा ही कर सकतेथे और न उनका जैन मंतव्यों के साथ समन्वय कर सकते थे। हरिभद्र अन्य दर्शनों के अध्ययन तक ही सीमित नहीं रहे, अपितु उन्होंनेउनके कुछ महत्त्वपूर्ण ग्रंथों पर तटस्थ भाव सेटीकाएं भी लिखीं। दिंगनाग के 'न्यायप्रवेश' पर उनकी टीका महत्त्वपूर्ण मानी जाती हैं। पतंजलि के 'योगसूत्र' का उनका अध्ययन भी काफी गम्भीर प्रतीत होता है, क्योंकि उन्होंनेउसी के आधार पर नवीन दृष्टिकोण सेयोगदृष्टिसमुच्चय, योगबिंदु, योगविंशिका आदि ग्रंथों की रचना की थी। इस प्रकार हरिभद्र जैन और जैनेतर परम्पराओं के एक ईमानदार अध्येता एवं व्याख्याकार भी हैं। जिस प्रकार प्रशस्तपाद नेदर्शन ग्रंथों की टीका लिखतेसमय तद्- तद् दर्शनों के मंतव्यों का अनुसरण करतेहुए तटस्थ भाव रखा, उसी प्रकार हरिभद्र नेभी इतर परम्पराओं का विवेचन करतेसमय तटस्थ भाव रखा है। अंधविश्वासों का निर्भीक रूप सेखण्डन यद्यपि हरिभद्र अन्य धार्मिक एवं दार्शनिक परम्पराओं के प्रति एक उदार और सहिष्णु दृष्टिकोण को लेकर चलतेहैं, किंतु इसका तात्पर्य यह नहीं है कि वेउनके अतर्कसंगत अंधविश्वासों कोप्रश्रय देते हैं। एक ओर वेअन्य परम्पराओं के प्रति आदरभाव रखते हुए उनमें निहित सत्यों कोस्वीकार करते हैं, तोदूसरी ओर उनमें पल रहे अंधविश्वासों का निर्भीक रूप सेखण्डन भी करते हैं। इस दृष्टि से उनकी दोरचनाएं बहुत ही महत्त्वपूर्ण हैं- (1) धूर्ताख्यान और (2) द्विजवदनचपेटिका । 'धूर्ताख्यान' में उन्होंने पौराणिक परम्पराओं में पल रहे अंधविश्वासों का सचोट निरसन किया है। हरिभद्र ने धूर्ताख्यान में वैदिक परम्परा में विकसित इस धारणा का खण्डन किया है कि
SR No.006191
Book TitleJain Sahityakash Ke Aalokit Nakshatra Prachin Jainacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy