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________________ ___130 की दृष्टि सेप्रकृति कर्म-प्रकृति ही है और इस रूप में प्रकृतिवाद भी उचित है, क्योंकि उसके वक्ता कपिल दिव्य-पुरुष और महामुनि हैं।" 'शास्त्रवार्तासमुच्चय' में हरिभद्र नेबौद्धों के क्षणिकवाद, विज्ञानवाद और शून्यवाद की भी समीक्षा की है, किंतु वेइन धारणाओं में निहित सत्य कोभी देखनेका प्रयत्न करतेहैं और कहतेहैं कि महामुनि और अर्हत् बुद्ध उद्देश्यहीन होकर किसी सिद्धांत का उपदेश नहीं करते। उन्होंनेक्षणिकवाद का उपदेश पदार्थ के प्रति हमारी आसक्ति के निवारण के लिए ही दिया है, क्योंकि जब वस्तु का अनित्य और विनाशशील स्वरूप समझ में आजाता है तोउसके प्रति आसक्ति गहरी नहीं होती। इसी प्रकार विज्ञानवाद का उपदेशभी बाह्य पदार्थों के प्रति तृष्णा कोसमाप्त करनेके लिए ही है। यदि सब कुछ चित्त के विकल्प हैं और बाह्य रूप सत्य नहीं है तोउनके प्रति तृष्णा उत्पन्न ही नहीं होगी। इसी प्रकार कुछ साधकों की मनोभूमिका कोध्यान में रखकर संसार की निस्सारता का बोध करानेके लिएशून्यवाद का उपदेश दिया है।" इस प्रकार हरिभद्र की दृष्टि में बौद्ध दर्शन केक्षणिकवाद, विज्ञानवाद औरशून्यवाद- इन तीनों सिद्धांतों का मूल उद्देश्य यही है कि व्यक्तिकीजगत् के प्रति उत्पन्न होनेवाली तृष्णाकाप्रहाणहो। अद्वैतवाद की समीक्षा करतेहुए हरिभद्र स्पष्ट रूप सेयह बतातेहैं कि सामान्य की दृष्टि सेतोअद्वैत की अवधारणा भी सत्य है। इसके साथ ही साथ वेयह भी बतातेहैं कि विषमता के निवारण के लिए और समभाव की स्थापना के लिए अद्वैत की भूमिका भी आवश्यक है। अद्वैत पराएपन की भावना का निषेध करता है, इस प्रकार द्वेष का उपशमन करता है। अतः वह भी असत्य नहीं कहा जा सकता। इसी प्रकार अद्वैत वेदांत केज्ञानमार्ग कोभी वेसमीचीन ही स्वीकार करतेहैं।" उपर्युक्त विवेचन सेयह स्पष्ट होजाता है कि अन्य दार्शनिक अवधारणाओं की समीक्षा का उनका प्रयत्न समीक्षा के लिए न होकर उन दार्शनिक परम्पराओं की सत्यता के मूल्यांकन के लिए ही है। स्वयं उन्होंने शास्त्रवार्तासमुच्चय' के प्राक्कथन में यह स्पष्ट किया है कि प्रस्तुत ग्रंथ का उद्देश्य अन्य परम्पराओं के प्रति द्वेष का उपशमन करना और सत्य का बोध करना है । उपर्युक्त विवरण सेयह स्पष्ट है कि उन्होंने ईमानदारी सेप्रत्येक दार्शनिक मान्यता के मूलभूत उद्देश्यों कोसमझानेका प्रयास किया है और इस प्रकार वेआलोचक के स्थान पर सत्य के गवेषक ही अधिक प्रतीत होतेहैं।
SR No.006191
Book TitleJain Sahityakash Ke Aalokit Nakshatra Prachin Jainacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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