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129 किंतु सिद्धांत में कर्म के जोदोरूप-द्रव्यकर्म और भावकर्म मानेगए हैं उसमें एक ओर भावकर्म के स्थान कोस्वीकार नहीं करनेके कारण वहां वेचार्वाक दर्शन की समीक्षा करतेहैं, वहीं दूसरी ओर वेद्रव्यकर्म की अवधारणा कोस्वीकार करतेहुए चार्वाक के भूत स्वभाववाद की सार्थकता कोभी स्वीकार करतेहैं और कहतेहैं कि भौतिक तत्त्वों का प्रभाव भी चैतन्य पर पड़ता है।" पं.सुखलालजी संघवी लिखतेहैं कि हरिभद्र नेदोनों पक्षों अर्थात् बौद्ध एवं मीमांसकों के अनुसार कर्मवाद के प्रसंग में चित्तवासना की प्रमुखता कोतथा चार्वाकों के अनुसार भौतिक तत्त्व की प्रमुखता कोएक-एक पक्ष के रूप में परस्परपूरक एवं सत्य मानकर कहा कि जैन कर्मवाद में चार्वाक और मीमांसक तथा बौद्धों के मंतव्यों कासुमेल हुआ है।"
___ इसी प्रकार ‘शास्त्रवार्तासमुच्चय' में हरिभद्र यद्यपि न्याय-वैशेषिक दर्शनों द्वारा मान्य ईश्वरवाद एवं जगत-कर्तृत्ववाद की अवधारणाओं की समीक्षा करतेहैं, किंतु जहां चार्वाकों, बौद्धों और अन्य जैन आचार्यों नेइन अवधारणाओं का खण्डन किया है, वहां हरिभद्र इनकी भी सार्थकता कोस्वीकार करतेहैं। हरिभद्र नेईश्वरवाद की अवधारणा में भी कुछ महत्त्वपूर्ण तथ्यों कोदेखनेका प्रयास किया है। प्रथम तोयह कि मनुष्य में कष्ट के समय स्वाभाविक रूप सेकिसी ऐसी शक्ति के प्रति श्रद्धा और प्रपत्ति की भावना होती है, जिसके द्वारा वह अपनेमें आत्मविश्वास जागृत कर सके। पं. सुखलालजी संघवी लिखतेहैं कि मानव मन की प्रपत्ति या शरणागति की यह भावना मूल में असत्य तोनहीं कही जा सकती। उनकी इस अपेक्षा कोठेस न पहुंचेतथा तर्क व बुद्धिवाद के साथ ईश्वरवादी अवधारणा का समन्वय भी हो, इसलिए उन्होंने(हरिभद्र ने) ईश्वर-कर्तृव्यवाद की अवधारणा कोअपनेढंग सेस्पष्ट करनेका प्रयत्न किया है।" हरिभद्र कहतेहैं कि जोव्यक्ति आध्यात्मिक निर्मलता के फलस्वरूप अपनेविकास की उच्चतमभूमिका कोप्राप्त होकि वह असाधारणआत्मा है और वही ईश्वर या सिद्ध पुरुष है। उस आदर्श स्वरूप कोप्राप्त करनेके कारण कर्ता तथा भक्ति का विषय होनेके कारण उपास्य है।" इसके साथ ही हरिभद्र यह भी मानतेहैं कि प्रत्येक जीव तत्त्वतः अपनेशुद्ध रूप में परमात्मा और अपनेभविष्य का निर्माता है और इस दृष्टि सेयदि विचार करें तोवह 'ईश्वर' भी है और 'कर्ता' भी है। इस प्रकार ईश्वर-कर्तृत्ववाद भी समीचीन ही सिद्ध होता है।" हरिभद्र सांख्यों के प्रकृतिवाद की भी समीक्षा करतेहैं, किंतु वेप्रकृति कोजैन परम्परा में स्वीकृत कर्मप्रकृति के रूप में देखतेहैं। वेलिखतेहैं कि ‘सत्य न्याप