SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 134
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 128 करते हैं तोन केवल उन परम्पराओं की मान्यताओं के प्रति, अपितु उनके प्रवर्त्तकों के प्रति भी चुटीलेव्यंग्य कस देते हैं । हरिभद्र स्वयं भी अपनेलेखन के प्रारम्भिक काल में इस प्रवृत्ति के अपवाद नहीं रहे हैं। जैन आगमों की टीका में और धूर्ताख्यान जैसे ग्रंथों की रचना में वेस्वयं भी इस प्रकार के चुटीनेव्यंग्य कसते हैं, किंतु हम देखते हैं कि विद्वत्ता की प्रौढ़ता के साथ हरिभद्र में धीरे-धीरेयह प्रवृत्ति लुप्त होजाती है और अपनेपरवर्ती ग्रंथों में वे अन्य परम्पराओं और उनके प्रवर्त्तकों के प्रति अत्यंत शिष्ट भाषा का प्रयोग करतेहैं तथा उनके प्रति बहुमान सूचित करते हैं । इसके कुछ उदाहरण हमें उनके ग्रंथ 'शास्त्रवार्तासमुच्चय' में देखनेकोमिल जाते हैं। अपने ग्रंथ 'शास्त्रवार्तासमुच्चय' के प्रारम्भ में ही ग्रंथ-रचना का उद्देश्य स्पष्ट करते हुए वेलिखते हैं - यं श्रुत्वा सर्वशास्त्रेषु प्रायस्तत्त्वविनिश्चयः । जायतेद्वेषशमनः स्वर्गसिद्धिसुखावहः ॥ अर्थात् इसका अध्ययन करनेसे अन्य दर्शनों के प्रति द्वेष - बुद्धि समाप्त होकर तत्त्व का बोध होजाता है। इस ग्रंथ में वेकपिल कोदिव्य पुरुष एवं महामुनि के रूप में सूचित करते हैं- कपिलो दिव्योहि स महामुनिः (शास्त्रवार्तासमुच्चय, 237 ) । इसी प्रकार वेबुद्ध कोभी अर्हत्, महामुनिः सुवैद्य आदि विशेषणों से अभिहित करते हैंयतोबुद्धो महामुनिः सुवैद्यवत् (वही, 465-466 ) । यहां हम देखते हैं कि जहां एक ओर अन्य दार्शनिक अपनेविरोधी दार्शनिकों का खुलकर परिहास करते हैं - न्यायदर्शन के प्रणेता महर्षि गौतम कोगाय का बछड़ा या बेल और महर्षि कणाद कोउल्लू कहते हैं, वहीं दूसरी ओर हरिभद्र अपनेविरोधियों के लिए महामुनि और अर्हत् जैसे सम्मान सूचक विशेषणों का प्रयोग करते हैं। 'शास्त्रवार्ता - समुच्चय' में यद्यपि अन्य दार्शनिक अवधारणाओं की स्पष्ट समालोचना है, किंतु सम्पूर्ण ग्रंथ में ऐसा कोई भी उदाहरण नहीं मिलता जहां हरिभद्र नेशिष्टता की मर्यादा का उल्लंघन किया हो। इस प्रकार हरिभद्र ने अन्य परम्पराओं के प्रति जिस शिष्टता और आदरभाव का परिचय दिया है, वह हमें जैन और जैनेतर किसी भी परम्परा के अन्य ग्रंथों में उपलब्ध नहीं होती। हरिभद्र ने अन्य दर्शनों के अध्ययन के पश्चात् उनमें निहित सारतत्त्व या सत्य कोसमझनेका जोप्रयास किया, वह भी अत्यंत ही महत्त्वपूर्ण है और उनके उदारचेता व्यक्तित्व कोउजागर करता है। यद्यपि हरिभद्र चार्वाक दर्शन की समीक्षा करते हुए उसके भूत स्वभाववाद का खण्डन करते हैं और उसके स्थान पर कर्मवाद की स्थापना करते हैं।
SR No.006191
Book TitleJain Sahityakash Ke Aalokit Nakshatra Prachin Jainacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy