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________________ 127 पं. दलसुखभाई मालवणिया की सूचना के अनुसार राजशेखर के काल का ही एक अन्य दर्शन-संग्राहक ग्रंथ आचार्य मेरुतुंगकृत षड्दर्शननिर्णय' हैं । इस ग्रंथ में मेरुतुंग नेजैन, बौद्ध, मीमांसा, सांख्य, न्याय और वैशेषिक- इन छ: दर्शनों की मीमांसा की है, किंतु इस कृति में हरिभद्र जैसी उदारता नहीं है। यह मुख्यतया जैनमत की स्थापना और अन्य मतों के खण्डन के लिए लिखा गया है। इसकी एकमात्र विशेषता यह है कि इसमें महाभारत, स्मृति, पुराण आदि के आधार पर जैनमत का समर्थन किया गया है। पं.दलसुखभाई मालवणिया नेषड्दर्शनसमुच्चय की प्रस्तावना में इस बात का भी उल्लेख किया है कि सोमतिलकसूरिकृत ‘षड्दर्शन-समुच्चय' की वृत्ति के अंत में अज्ञातकृत एक कृति मुद्रित है । इसमें भी जैन, न्याय, बौद्ध, वैशेषिक, जैमिनीय, सांख्य और चार्वाक- ऐसेसात दर्शनों का संक्षेप में परिचय दिया गया है, किंतु अंत में अन्य दर्शनों कोदुनय की कोटि में रखकर जैनदर्शन कोउच्च श्रेणी में रखा गयाहै। इसप्रकारउसकालेखकभीअपनेकोसाम्प्रदायिकअभिनिवेशसेदूरनहींरखसका। ___ इस प्रकार हम देखतेहैं कि दर्शन-संग्राहकग्रंथों की रचना में भारतीय इतिहास में हरिभद्र ही एकमात्र ऐसेव्यक्ति हैं जिन्होंनेनिष्पक्ष भाव सेऔर पूरी प्रामाणिकता के साथ अपनेग्रंथ में अन्य दर्शनों का विवरण दिया है। इस क्षेत्र में वेअभी तक अद्वितीय हैं। समीक्षा में शिष्टभाषा का प्रयोगऔर अन्यधर्मप्रवर्तकों के प्रति बहुमान . दर्शन के क्षेत्र में अपनी दार्शनिक अवधारणाओं की पुष्टि तथा विरोधी अवधारणाओं के खण्डन के प्रयत्न अत्यंत प्राचीनकाल सेहोतेरहेहैं। प्रत्येक दर्शन अपनेमंतव्यों की पुष्टि के लिए अन्य दार्शनिक मतों की समालोचना करता है। स्वपक्ष का मण्डन तथा परपक्ष का खण्डन- यह दार्शनिकों की सामान्य प्रवृत्ति रही है। हरिभद्र भी इसके अपवाद नहीं हैं। फिर भी उनकी यह विशेषता है कि अन्य दार्शनिक मतों की समीक्षा में वेसदैव ही शिष्ट भाषा का प्रयोग करतेहैं तथा विरोधी दर्शनों के प्रवर्तकों के लिए भी बहुमान प्रदर्शित करतेहैं। दार्शनिक समीक्षाओं के क्षेत्र में एक युग ऐसा रहा है, जिसमें अन्य दार्शनिक परम्पराओं कोन केवल भ्रष्ट रूप में प्रस्तुत किया जाता था, अपितु उनके प्रवर्तकों का उपहास भी किया जाता था। जैन और जैनेतर दोनों ही परम्पराएं इस प्रवृत्ति सेअपनेकोमुक्त नहीं रख सकीं। जैन परम्परा के सिद्धसेन दिवाकर, समन्तभद्र आदि दिग्गज दार्शनिक भी जब अन्य दार्शनिक परम्पराओं की समीक्षा
SR No.006191
Book TitleJain Sahityakash Ke Aalokit Nakshatra Prachin Jainacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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