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________________ 126 में अज्ञातकर्तृक 'सर्वसिद्धांतप्रवेशिक' का स्थान आता है, किंतु इतना निश्चित है कि यह ग्रंथ किसी जैन आचार्य द्वारा प्रणीत है, क्योंकि इसके मंगलाचरण में 'सर्वभाव प्रणेतारं प्रणिपत्य जिनेश्वरं' ऐसा उल्लेख है। पं. सुखलाल संघवी के अनुसार प्रस्तुत ग्रंथ की प्रतिपादन शैली हरिभद्र के षड्दर्शनसमुच्चय का ही अनुसरण करती है ।' अंतर मात्र यह है कि जहां हरिभद्र का ग्रंथ पद्य में है वहां सर्वसिद्धांतप्रवेशक गद्य में है। साथ ही यह ग्रंथ हरिभद्र के षड्दर्शनसमुच्चय की अपेक्षा कुछ विस्तृत भी है। जैन परम्परा के दर्शन-संग्राहक ग्रंथों में दूसरा स्थान जीवदेवसूरि के शिष्य आचार्य जिनदत्तसूरि (विक्रम 1265) के 'विवेकविलास' का आता है। इस ग्रंथ के अष्टम उल्लास में षड्दर्शनविचार नामक प्रकरण है, जिसमें जैन, मीमांसक, बौद्ध, सांख्य, शैव और नास्तिक- इन छः दर्शनों का संक्षेप में वर्णन किया गया है। पं. सुखभाई मालवणिया के अनुसार इस ग्रंथ की एक विशेषता तोयह है कि इसमें न्याय-वैशेषिकों का समावेश शैवदर्शन में किया गया है। मेरी दृष्टि में इसका कारण लेखक के द्वारा हरिभद्र के षड्दर्शनसमुच्चय का अनुसरण करना ही है, क्योंकि उसमें भी न्यायदर्शन के देवता के रूप में शिव का ही उल्लेख किया गया है - ‘अक्षपादमतेदेवः सृष्टिसंहारकृच्छिवः’॥13॥ यह ग्रंथ भी हरिभद्र के षड्दर्शनसमुच्चय के समान केवल परिचयात्मक और निष्पक्ष विवरण प्रस्तुत करता है और आकार में मात्र 66 श्लोक प्रमाण है। जैन परम्परा में दर्शन - संग्राहक ग्रंथों में तीसरा क्रम राजशेखर (विक्रम 1405) के षड्दर्शनसमुच्चय का आता है। इस ग्रंथ में जैन, सांख्य, जैमिनीय, योग, वैशेषिक और सौगत (बौद्ध) इन छः दर्शनों का उल्लेख किया गया है। हरिभद्र के समान ही इस ग्रंथ में भी इन सभी कोआस्तिक कहा गया है और अंत में नास्तिक के रूप में चार्वाक दर्शन का परिचय दिया गया है। हरिभद्र के षड्दर्शनसमुच्चय और राजशेखर के षड्दर्शनसमुच्चय में एक मुख्य अंतर इस बात कोलेकर है कि दर्शनों के प्रस्तुतिकरण में जहां हरिभद्र जैनदर्शन कोचौथा स्थान देते हैं, वहां राजशेखर जैनदर्शन को प्रथम स्थान देते हैं। पं. सुखलाल संघवी के अनुसार सम्भवतः इसका कारण यह होसकता है कि राजशेखर अपनेसमकालीन दार्शनिकों के अभिनिवेशयुक्त प्रभाव से अपनेकोदूर नहीं रख सके ।
SR No.006191
Book TitleJain Sahityakash Ke Aalokit Nakshatra Prachin Jainacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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