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125 (ई.1350?) के ‘सर्वदर्शनसंग्रह' का आता है। किंतु सर्वदर्शनसंग्रह' की मूलभूत दृष्टि.भी यही है कि वेदांत ही एकमात्र सम्यग्दर्शन है। ‘सर्वसिद्धान्तसंग्रह' और 'सर्वदर्शनसंग्रह' दोनों की हरिभद्र के षड्दर्शनसमुच्चय सेइस अर्थ में भिन्नता है कि जहां हरिभद्र बिना किसी खण्डन-मण्डन के निरपेक्ष भाव सेतत्कालीन विविध दर्शनों कोप्रस्तुत करतेहैं, वहां वैदिक परम्परा के इन दोनों की मूलभूत शैली खण्डनपरक ही है। अतः इन दोनों ग्रंथों में अन्य दार्शनिक मतों के प्रस्तुतिकरण में वह निष्पक्षता और उदारतापरिलक्षित नहीं होती, जोहरिभद्र के षड्दर्शनसमुच्चय में है।
इसके पश्चात् वैदिक परम्परा के दर्शन-संग्राहक ग्रंथों में मधुसूदन सरस्वती के ‘प्रस्थान-भेद'का क्रम आता है। मधुसूदन सरस्वती नेदर्शनों का वर्गीकरण आस्तिक और नास्तिक के रूप में किया है। नास्तिक-अवैदिक दर्शनों में वेछ: प्रस्थानों का उल्लेख करतेहैं। इसमें बौद्ध दर्शन के चार सम्प्रदाय तथाचार्वाक और जैनों का समावेश हुआ है। आस्तिक-वैदिक दर्शनों में- न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, पूर्वमीमांसा और उत्तरमीमांसा का समावेश हुआ है। इन्होंनेपाशुपत दर्शन एवं वैष्णव दर्शन का भी उल्लेख किया है। पं. दलसुखभाई मालवणिया के अनुसार प्रस्थान-भेद के लेखक की एक विशेषता अवश्य है जोउसेपूर्व उल्लिखित वैदिक परम्परा के अन्य दर्शन-संग्राहक ग्रंथों सेअलग करती है, वह यह कि इस ग्रंथ में वैदिक दर्शनों के पारस्परिक विरोध का समाधान यह कह कर किया गया है कि इन प्रस्थानों के प्रस्तोता सभी मुनि भ्रांत तोनहीं होसकते, क्योंकि वेसर्वज्ञ थे। चूंकि बाह्य विषयों में लगेहुए मनुष्यों का परम पुरुषार्थ में प्रविष्ट होना कठिन होता है, अतएव नास्तिकों का निराकरण करनेके लिए इन मुनियों नेदर्शन प्रस्थानों के भेद किए हैं। इस प्रकार प्रस्थान-भेद में यत्किंचित् उदारता का परिचय प्राप्त होता है, किंतु यह उदारता केवल वैदिक परम्परा के आस्तिक दर्शनों के संदर्भ में ही है, नास्तिकों का निराकरण करना तोसर्वदर्शनकौमुदीकार कोभी इष्ट ही है। इस प्रकार दर्शन-संग्राहक ग्रंथों में हरिभद्र की जोनिष्पक्ष और उदार दृष्टि है वह हमें अन्य परम्पराओं में रचित दर्शन-संग्राहक ग्रंथों में नहीं मिलती है। यद्यपि वर्तमान भारतीय दार्शनिक परम्पराओं का विवरण प्रस्तुत करनेवालेअनेक ग्रंथ लिखेजारहेहैं, किंतु उनमें भी लेखक कहीं न कहीं अपनेइष्ट दर्शन कोहीअंतिम सत्य के रूप में प्रस्तुत करता प्रतीत होता है।
हरिभद्र के पश्चात् जैन परम्परा में लिखेगए दर्शन-संग्राहक ग्रंथों