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________________ 124 प्राचीन भारतीय साहित्य में उपलब्ध नहीं होता। हरिभद्र के पूर्व तक जैन, बौद्ध और वैदिक - तीनों ही परम्पराओं के किसी भी आचार्य ने अपनेकाल के सभी दर्शनों का निष्पक्ष परिचय देनेकी दृष्टि सेकिसी भी ग्रंथ की रचना नहीं की थी। उनके ग्रंथों में अपनेविरोधी मतों का प्रस्तुतिकरण मात्र उनके खण्डन की दृष्टि सेही हुआ है। जैन परम्परा में भी हरिभद्र के पूर्व सिद्धसेन दिवाकर और समन्तभद्र ने अन्य दर्शनों के विवरण तोप्रस्तुत किए हैं, किंतु उनकी दृष्टि भी खण्डनपरक ही है। विविध दर्शनों का विवरण प्रस्तुत करनेकी दृष्टि सेमल्लवादी का नयचक्र महत्त्वपूर्ण ग्रंथ कहा जा सकता है, किंतु उसका मुख्य उद्देश्य भी प्रत्येक दर्शन की अपूर्णता कोसूचित करतेहुए अनेकान्तवाद की स्थापना करना है। पं. दलसुखभाई मालवलिया के शब्दों में नयचक्र की कल्पना के पीछे आचार्य का आशय यह है कि कोई भी मत अपनेआप में पूर्ण नहीं है । जिस प्रकार उस मत की स्थापना दलीलों सेहोसकती है, उसी प्रकार उसका उत्थापन भी विरोधी मतों की दलीलों सेहोसकता है। स्थापना और उत्थापन का यह चक्र चलता रहता है। अतएव अनेकान्तवाद में येमत यदि अपना उचित स्थान प्राप्त करें, तभी उचित है अन्यथा नहीं।' नयचक्र की मूलदृष्टि भी स्वपक्ष अर्थात् अनेकान्तवाद के मण्डन और परपक्ष के खण्डन की ही है। इस प्रकार जैन परम्परा में भी हरिभद्र के पूर्व तक निष्पक्ष भाव सेकोई भी दर्शन - संग्राहक ग्रंथ नहीं लिखा गया। जैनेतर परम्पराओं के दर्शन - संग्राहक ग्रंथों में आचार्य शंकर विरचित मानेजानेवाले‘सर्वसिद्धांतसंग्रह' का उल्लेख किया जा सकता है। यद्यपि यह कृति माधवाचार्य के सर्वदर्शनसंग्रह की अपेक्षा प्राचीन है, फिर भी इसके आद्य शंकराचार्य द्वारा विरचित होनेमें संदेह है। इस ग्रंथ में भी पूर्वदर्शन का उत्तरदर्शन के द्वारा निराकरण करतेहुए अंत में अद्वैत वेदांत की स्थापना की गई है। अतः किसी सीमा तक इसकी शैली कोनयचक्र की शैली के साथ जोड़ा जा सकता है किंतु जहां नयचक्र, अंतिम मत का भी प्रथम मत खण्डन करवाकर किसी भी एक दर्शन कोअंतिम सत्य नहीं मानता है, वहां 'सर्वसिद्धान्तसंग्रह' वेदांत कोएकमात्र और अंतिम सत्य स्वीकार करता है। अतः यह एक दर्शनसंग्राहक ग्रंथ होकर भी निष्पक्ष दृष्टि का प्रतिपादक नहीं माना जा सकता है। हरिभद्र के षड्दर्शनसमुच्चय की जोविशेषता है वह इसमें नहीं है । जैनेतर परम्पराओं में दर्शन - संग्राहक ग्रंथों ग्रंथों में दूसरा स्थान माधवाचार्य -
SR No.006191
Book TitleJain Sahityakash Ke Aalokit Nakshatra Prachin Jainacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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