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________________ 123 भव-बीजांकुरजनना रागाद्याक्षयमुपागता यस्य। ... . ब्रह्मा वाविष्णुर्वा हरोजिनोवा नमस्तस्मै॥ वस्तुतः 2500 वर्ष के सुदीर्घ जैन इतिहास में ऐसा कोई भी समन्वयवादी उदारचेता व्यक्तित्व नहीं है, जिसेहरिभद्र के समतुल्य कहा जा सके। यद्यपि हरिभद्र के पूर्ववर्ती और परवर्ती अनेक आचार्यों नेजैन दर्शन की अनेकान्त दृष्टि के प्रभाव के परिणामस्वरूप उदारता का परिचय अवश्य दिया है, फिर भी उनकी सृजनधर्मिता उस स्तर की नहीं है जिस स्तर की हरिभद्र की है। उनकी कृतियों में दो-चार गाथाओं या श्लाकों में उदारता के चाहेसंकेत मिल जाएं, किंतु ऐसेकितने हैं जिन्होंनेसमन्वयात्मक और उदारदृष्टि के आधार पर षड्दर्शनसमुच्चय, शास्त्रवार्तासमुच्चय और योगदृष्टिसमुच्चय जैसी महान् कृतियों का प्रणयन किया हो। अन्य दार्शनिक और धार्मिक परम्पराओं का अध्ययन मुख्यतः दोदृष्टियों सेकिया जाता है- एक तोउन परम्पराओं की आलोचना करनेकी दृष्टि सेऔर दूसरा उनका यथार्थ परिचय पानेऔर उनमें निहित सत्य कोसमझनेकी दृष्टि से। आलोचना एवं समीक्षा की दृष्टि सेलिखेगएग्रंथों में भीआलोचना के शिष्ट और अशिष्ट ऐसेदोरूप मिलतेहैं। साथ ही जब ग्रंथकर्ता का मुख्य उद्देश्य आलोचना करना होता है, तोवह अन्य परम्पराओं के प्रस्तुतिकरण में न्याय नहीं करता है और उनकी अवधारणाओं कोभ्रांतरूप में प्रस्तुत करता है। उदाहरण के रूप में स्याद्वाद और शून्यवाद के आलोचकों नेकभी उन्हें सम्यक् रूप सेप्रस्तुत करनेका प्रयत्न नहीं किया है। यद्यपि हरिभद्र नेभी अपनी कुछ कृतियों में अन्य दर्शनों एवं धर्मों की समीक्षा की है। अपनेग्रंथ धूर्ताख्यान में वेधर्म और दर्शन के क्षेत्र में पनप रहेअंधविश्वासों का सचोट खण्डन भी करतेहैं, फिर भी इतना निश्चित है कि वेन तोअपनेविरोधी के विचारों कोभ्रांत रूप में प्रस्तुत करतेहैं और न उनके सम्बंध में अशिष्ट भाषा का प्रयोगही करतेहैं। दर्शन-संग्राहक ग्रंथों की रचना और उसमेंहरिभद्र कास्थान यदि हम भारतीय दर्शन के समग्र इतिहास में सभी प्रमुख दर्शनों के सिद्धांत कोएक ही ग्रंथ में पूरी प्रामाणिकता के साथ प्रस्तुत करनेके क्षेत्र में हुए प्रयत्नों कोदेखतेहैं, तोहमारी दृष्टि में हरिभद्र ही वेप्रथम व्यक्ति हैं, जिन्होंनेसभी प्रमुख भारतीय दर्शनों की मान्यताओं कोनिष्पक्ष रूप सेएक ही ग्रंथ में प्रस्तुत किया है। हरिभद्र के षड्दर्शनसमुच्चय की कोटि का और उससेप्राचीन दर्शन संग्राहक कोई अन्य ग्रंथ हमें
SR No.006191
Book TitleJain Sahityakash Ke Aalokit Nakshatra Prachin Jainacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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