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विवरण तोदेता है. किंत उन्हें मिथ्या, अनार्य या असंगत कहकर उनकी आलोचनाभी करता है। भगवती में विशेष रूप मेंमंखलि-गोशालक के प्रसंग में तोजैन परम्परा सामान्य शिष्टता का भी उल्लंघन कर देती है। ऋषिभाषित में जिस मंखलि-गोशालक कोअर्हत् ऋषि के रूप में सम्बोधित किया गया था, भगवती में उसी का अशोभनीय चित्र प्रस्तुत किया गया है। यहां यह चर्चा मैं केवल इसलिए कर रहा हूं कि हम हरिभद्र की उदारदृष्टि का सम्यक् मूल्यांकन कर सकें और यह जान सकें कि न केवल जैन परम्परा में, अपितु समग्र भारतीय दर्शन में उनका अवदान कितना महान् है।
जैन दार्शनिकों में सर्वप्रथम सिद्धसेन दिवाकर नेअपनेग्रंथों में अन्य दार्शनिक मान्यताओं का विवरण प्रस्तुत किया है। उन्होंनेबत्तीस द्वात्रिंशिकाएं लिखी हैं, उनमें नवीं में वेदवाद, दशवीं में योगविद्या, बारहवीं में न्यायदर्शन, तेरहवीं में सांख्यदर्शन, चौदहवीं में वैशेषिकदर्शन, पंद्रहवीं में बौद्धदर्शन और सोलहवीं में नियतिवाद की चर्चा है, किंतु सिद्धसेन नेयह विवरण समीक्षात्मक दृष्टि सेही प्रस्तुत किया है। वेअनेक प्रसंगों में इन अवधारणाओं के प्रति चुटीलेव्यंग्य भी कसतेहैं। वस्तुतः दार्शनिकों में अन्य दर्शनों के जानने और उनका विवरण प्रस्तुत करनेकी जोप्रवृत्ति विकसित हुई थी उसका मूल आधार विरोधी मतों का निराकरण करना हीथा सिद्धसेन भी इसके अपवाद नहीं हैं। साथ ही पं. सुखलालजी संघवी का यह भी कहना है कि सिद्धसेन की कृतियों में अन्य दर्शनों का जोविवरण उपलब्ध है वहभीपाठ-भ्रष्टता और व्याख्या के अभाव के कारण अधिक प्रामाणिक नहीं है। यद्यपि सिद्धसेन दिवाकर, समन्तभद्र, जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण आदि हरिभद्र के पूर्ववर्ती दार्शनिकों नेअनेकांत दृष्टि के प्रभाव के कारण कहीं-कहीं वैचारिक उदारता का परिचय दिया है, फिर भी येसभी विचारक इतना तोमानतेही हैं कि अन्य दर्शन ऐकान्तिक दृष्टि का आश्रय लेनेके कारण मिथ्या-दर्शन हैं, जबकि जैन दर्शन अनेकान्त-दृष्टि अपनानेके कारण सम्यग्दर्शन हैं। वस्तुतः वैचारिक समन्वयशीलता और धार्मिक उदारता की जिस ऊंचाई का स्पर्श हरिभद्र नेअपनी कृतियों में किया है, वैसा उनके पूर्ववर्ती जैन एवं जैनेतर दार्शनिकों में हमें परिलक्षित नहीं होता। यद्यपिहरिभद्र के परवर्ती जैन दार्शनिकों में हेमचंद्र, यशोविजय, आनन्दघन आदि अन्य धर्मों और दर्शनों के प्रति समभाव और उदारता का परिचय देतेहैं, किंतु उनकी यह उदारता उन पर हरिभद्र के प्रभाव कोही सूचित करती है। उदाहरण के रूप में हेमचंद्र अपनेमहादेव-स्तोत्र (44) में निम्नश्लोक प्रस्तुत करतेहैं