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हरिभद्र, सिद्धर्षि और अकलंक के पूर्ववर्ती हैं, इस सम्बंध में एक अन्य प्रमाण यह है कि सिद्धर्षि नेन्यायावतार की टीका में अकलंक द्वारा मान्य स्मृति, प्रत्यभिज्ञाऔर तर्क- इन तीन प्रमाणों की चर्चा की है। अकलंक के पूर्व जैनदर्शन में इन तीन प्रमाणों की चर्चा अनुपस्थित है। हरिभद्र नेभी कहीं इन तीन प्रमाणों की चर्चा नहीं की है। अतः हरिभद्र, अकलंक और सिद्धर्षि सेपूर्ववर्ती हैं। अकलंक का समय विद्वानों नेई. सन् 720-780 स्थापित किया है। अतः हरिभद्र या तोअकलंक के पूर्ववर्ती या वरिष्ठ समकालीन ही सिद्ध होतेहैं। हरिभद्र का व्यक्तित्व
हरिभद्र का व्यक्तित्व अनेक सद्गुणों की पूंजीभूत भास्वर प्रतिभा है। उदारता, सहिष्णुता, समदर्शिता ऐसेसद्गुण हैं जोउनके व्यक्तित्व कोमहनीयता प्रदान करतेहैं। उनका जीवन समभाव की साधना कोसमर्पित है। यही कारण है कि विद्या के बल पर उन्होंनेधर्म और दर्शन के क्षेत्र में नए विवाद खड़े करने के स्थान पर उनके मध्य समन्वय साधनेका पुरुषार्थ किया है। उनके लिए विद्या विवादाय' न होकर पक्षव्यामोह सेऊपर उठकर सत्यान्वेषण करनेहेतु है। हरिभद्र पक्षाग्रही न होकर सत्याग्रही हैं, अतः उन्होंनेमधुसंचयी भ्रमर की तरह विविध धार्मिक और दार्शनिक परम्पराओं सेबहुत कुछ लिया है और उसेजैन परम्परा की अनेकान्त दृष्टि सेसमन्वित भी किया है। यदि उनके व्यक्तित्व की महानता कोसमझना है तोविविध क्षेत्रों में उनके अवदानों का मूल्यांकन करना होगा और उनके अवदान का वह मूल्यांकन ही उनके व्यक्तित्व का मूल्यांकन होगा। धर्म और दर्शन के क्षेत्र में हरिभद्र काअवदान
धर्म और दर्शन के क्षेत्र में हरिभद्र का अवदान क्या है? यह समझनेके लिए इस चर्चा कोहम निम्न बिन्दुओं में विभाजित कररहेहैं(1) दार्शनिक एवं धार्मिक परम्पराओं का निष्पक्ष प्रस्तुतिकरणा (2) अन्य दर्शनों की समीक्षा में भी शिष्ट भाषा का प्रयोग तथा अन्य धर्मों एवं
दर्शनों के प्रवर्तकों के प्रति बहुमानवृत्तिा शुष्क दार्शनिक समालोचनाओं के स्थान पर उन अवधारणाओं के सार-तत्त्व
और मूल उद्देश्यों कोसमझनेका प्रयत्ना (1) दार्शनिक एवं धार्मिक परम्पराओं का निष्पक्ष प्रस्तुतिकरण।
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