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नहीं है, अतः इसेउनका सत्ता-समय माना जा सकता है। यद्यपि उक्त गाथा की पुष्टि हेतु हमें अन्य कोई उल्लेख उपलब्ध नहीं होता है। यदि हम इसी प्रसंग में वीर निर्वाण संवत् के सम्बंध में चली आ रही 60 वर्ष की भूल कोसंशोधित कर वीर - निर्वाण कोवि. पू. 410 या ई.पू. 467 मानते हैं जैसा कि मैंने अपनेएक निबंध (देखें: सागर जैन- विद्या भारती, भाग 1 ) में सिद्ध किया है, तोऐसी स्थिति में हरिभद्र का स्वर्गवास काल 1255-467 = 788 ई. सिद्ध होजाता है और यह काल जिनविजयजी द्वारा निर्धारित हरिभद्र के सत्ता- समय ईस्वी सन् 700 से 770 के अधिक निकट है।
हरिभद्र के उपर्युक्त समय - निर्णय के सम्बंध में एक अन्य महत्त्वपूर्ण समस्या खड़ी होती है सिद्धर्षिकृत उपमितिभवप्रपंचकथा के उस उल्लेख सेजिसमें सिद्धर्षि नेहरिभद्र को अपना धर्मबोधकर गुरु कहा है। उन्होंनेयह कथा वि.सं. 962 में ज्येष्ठ शुक्ल पंचमी, गुरुवार के दिन पूर्ण की थी। सिद्धर्षि के द्वारा लिखेगए इस तिथि के अनुसार यह काल 906 ई. सिद्ध होता है तथा उसमें बताए गए वार, नक्षत्र आदि भी ज्योतिष की गणना सेसिद्ध होते हैं। सिद्धर्षि उपमितिभवप्रपंचकथा में हरिभद्र के विषय में लिखतेहैं कि उन्होंने (हरिभद्र ने) अनागत अर्थात् भविष्य में होनेवाले मुझकोजानकर ही मेरेलिए चैत्यवंदनसूत्र का आश्रय लेकर 'ललितविस्तरा - वृत्ति' की रचना की | यद्यपि कुछ जैन कथानकों में सिद्धर्षि और हरिभद्र के पारस्परिक सम्बंध कोसिद्ध किया गया है और यह बताया गया है कि सिद्धर्षि हरिभद्र के हस्तदीक्षित शिष्य थे, किंतु सिद्धर्षि का यह कथन कि 'भविष्य में होनेवालेमुझकोजानकर.......' यही सिद्ध करता है कि आचार्य हरिभद्र उनके परम्परा - गुरु थे, साक्षात् गुरु नहीं।
स्वयं सिद्धर्षि नेभी हरिभद्र कोकालव्यवहित अर्थात् पूर्वकाल में होनेवाले तथा अपनेको अनागत अर्थात् भविष्य में होनेवाला कहा है। अतः दोनों के बीच काल का पर्याप्त अंतर होना चाहिए। यद्यपि यह सत्य है कि सिद्धर्षि कोउनके ग्रंथ ललितविस्तरा के अध्ययन सेजिन धर्म में स्थिरता हुई थी, इसलिए उन्होंने हरिभद्र कोधर्मबोध प्रदाता गुरु कहा, साक्षात् गुरु नहीं कहा। मुनि विजयजी नेभी हरिभद्र कोसिद्धर्षि का साक्षात् गुरु नहीं माना है।
'कुवलयमाला' के कर्त्ता उद्योतनसूरि ने अपनेइस ग्रंथ में जोशक संवत् 699 अर्थात् ई. सन् 777 में निर्मित है, हरिभद्र एवं उनकी कृति 'समराइच्चकहा' तथा उनके भवविरह नाम का उल्लेख किया है। अतः हरिभद्र ई. सन् 777 के पूर्व हुए हैं, इसमें कोई विवाद नहीं रह जाता है ।