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गाथा के आधार पर प्रद्युम्नसूरि ने अपने विचारसारप्रकरण एवं समयसुंदरगणि स्वसंगृहीत 'गाथासहस्री' में हरिभद्र का स्वर्गवास वि.सं. 585 में माना है। इसी आधार पर मुनि श्रीकल्याणविजयजी ने 'धर्म-संग्रहणी' की अपनी संस्कृत प्रस्तावना में हरिभद्र का सत्ता- समय वि.सं. की छठी शताब्दी स्थापित किया है।
कुलमण्डनसूरि ने 'विचार अमृतसंग्रह' में और धर्मसागर उपाध्याय नेतपागच्छगुर्वावली में वीर - निर्वाण - संवत् 1055 में हरिभद्र का समय निरूपित किया है
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पणपन्नदससएहिं हरिसूरि आसि तत्थ पुव्वकई ।
परम्परागत धारणा के अनुसार वी. नि. के 470 वर्ष पश्चात् वि.सं. का प्रारम्भ माननेसे (470+585 1055) यह तिथि पूर्वोक्त गाथा के अनुरूप ही वि. सं. 585 में हरिभद्र का स्वर्गवास निरूपित करती है ।
=
आचार्य हरिभद्रं का स्वर्गवास वि.सं. की छठी शताब्दी के उत्तरार्ध में
इसका समर्थन निम्न दोप्रमाण करते हैं
हुआ,
(1 ) तपागच्छ गुर्वावली में मुनिसुंदरसूरि नेहरिभद्रसूरि कोमानदेवसूरि द्वितीय का मित्र बताया है, जिनका समय विक्रम की छठी शताब्दी माना जाता है। अतः यह उल्लेख पूर्व गाथोक्त समय से अपनी संगति रखता है।
(2) इस गाथोक्त समय के पक्ष में दूसरा सबसे महत्त्वपूर्ण साक्ष्य हरिभद्र का 'धूर्ताख्यान' है, जिसकी चर्चा मुनि जिनविजयजी ने 'हरिभद्रसूरि का समय निर्णय' (पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, 1988) में नहीं की थी। सम्भवतः उन्हें निशीथचूर्णि में धूर्ताख्यान का उल्लेख सम्बंधी यह तथ्य ज्ञात नहीं था। यह तथ्य मुझे धूर्ताख्यान' में मूल स्रोत की खोज करतेसमय उपलब्ध हुआ है। धूर्ताख्यान के समीक्षात्मक अध्ययन में प्रोफेसर ए. एन. उपाध्येनेहरिभद्र के प्राकृत धूर्ताख्यान का संघतिलक के संस्कृत धूर्ताख्यान पर और अज्ञातकृत मरुगुर्जर में निबद्ध धूर्ताख्यान पर प्रभाव की चर्चा की है। इस प्रकार उन्होंनेधूर्ताख्यान कोहरिभद्र की मौलिक रचना माना है। यदि धूर्ताख्यान की कथा का निबंधन हरिभद्र नेस्वयं अपनी स्वप्रसूत कल्पना सेकिया है तोवेनिश्चित ही निशीथभाष्य और निशीथचूर्णि के लेखन काल सेपूर्ववर्ती हैं, क्योंकि इन दोनों ग्रंथों में यह कथा उपलब्ध है। भाष्य में इस कथा का संदर्भ निम्न रूप में उपलब्ध होता है