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112 धर्मशास्त्र, दर्शन और ज्योतिष के ज्ञाता तोथेही, जैन परम्परा सेजुड़नेपर उन्होंनेजैन साहित्य का भी गम्भीर अध्ययन किया मात्र यही नहीं, उन्होंनेअपनेइस अध्ययन कोपूर्वअध्ययन सेपरिपुष्ट और समन्वित भी किया। उनके ग्रंथ योगसमुच्चय, योगदृष्टि, शास्त्रवार्तासमुच्चय आदि इस बात का स्पष्ट प्रमाण हैं कि उन्होंनेअपनी पारिवारिक परम्परा सेप्राप्त ज्ञान और जैन परम्परा में दीक्षित होकर अर्जित किए ज्ञान कोएक दूसरेका पूरक बनाकर ही इन ग्रंथों की रचना की है। हरिभद्र कोजैनधर्म की ओर आकर्षित करनेवाली जैन साध्वी महत्तरा याकिनी थी, अतः अपना धर्म-ऋण चुकानेके लिए उन्होंनेअपनेकोमहत्तरा याकिनीसूनु अर्थात्याकिनी का धर्मपुत्र घोषित किया। उन्होंनेअपनी रचनाओं में अनेकशः अपनेसाथ इस विशेषण का उल्लेख किया1 हरिभद्र के उपनाम के रूप में दूसरा विशेषण भवविरह' है।2 उन्होंनेअपनी अनेक रचनाओं में इस उपनाम का निर्देश किया है। विवेच्य ग्रंथ पंचाशक के अंत में हमें भवविरह' शब्द मिलता है। अपनेनाम के साथ यह भवविरह विशेषण लगानेका क्या कारण रहा होगा, यह कहना तोकठिन है, फिर भी इस विशेषण का सम्बंध उनके जीवन की तीन घटनाओं सेजोड़ा जाता है। सर्वप्रथम आचार्य जिनदत्त नेउन्हें भवविरह अर्थात् मोक्ष प्राप्त करनेकी प्रेरणा दी, अतः सम्भव है उनकी स्मृति में वेअपनेकोभवविरह का इच्छुक कहते हों। यह भी सम्भव है कि अपनेप्रिय शिष्यों के विरह की स्मृति में उन्होंनेयह उपनाम धारण किया हो। पं. सुखलालजी नेइस सम्बंध में निम्न तीन घटनाओं का संकेत किया है
___(1) धर्मस्वीकार का प्रसंग, (2) शिष्यों के वियोग का प्रसंग, (3) याचकों कोदिए जानेवालेआशीर्वाद का प्रसंग तथा उनके द्वारा भवविरहसूरि चिरंजीवी होकहेजानेका प्रसंगा2 इस तीसरेप्रसंगका निर्देशकहावली में है। हरिभद्र कासमय
हरिभद्र के समय के सम्बंध में अनेक अवधारणाएं प्रचलित हैं। अंचलगच्छीय आचार्य मेरुतुंग ने विचार श्रेणी' में हरिभद्र के स्वर्गवास के संदर्भ में निम्न प्राचीन गाथाकोउद्धत किया है
पंचसएपणसीए विक्कम कालाउझत्ति अत्थिमओ। हरिभद्रसूरि भवियाणं दिसउ कल्लाणं॥ उक्त गाथा के अनुसार हरिभद्र का स्वर्गवास वि. सं. 585 में हुआ। इसी