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सम्बंध में उनके इन ग्रंथों सेइससे अधिक या विशेष सूचना उपलब्ध नहीं होती।
आचार्य हरिभद्र के जीवन के विषय में उल्लेख करनेवाला सबसे प्राचीन ग्रंथ भद्रेश्वर की कहावली है। इस ग्रंथ में उनके जन्म-स्थान का नाम बंभपुनी उल्लिखित है, किंतु अन्य ग्रंथों में उनका जन्मस्थान चित्तौड़ (चित्रकूट) माना गया है। सम्भावना है कि ब्रह्मपुरी चित्तौड़ का कोई उपनगर या कस्बा रहा होगा। कहावली के अनुसार इनके पिता का नाम शंकर भट्ट और माता का नाम गंगा था। पं. सुखलाल जी का कथन है कि पिता के नाम के साथ भट्ट शब्द सूचित करता है कि वेजाति सेब्राह्मण थे। ब्रह्मपुरी में उनका निवास भी उनके ब्राह्मण होनेके अनुमान की पुष्टि करता है। गणधरसार्धशतक और अन्य ग्रंथों में उन्हें स्पष्टरूप सेब्राह्मण कहा गया है। धर्म और दर्शन की अन्य परम्पराओं के संदर्भ में उनके ज्ञान गाम्भीर्य से भी इस बात की पुष्टि होती है कि उनका जन्म और शिक्षा-दीक्षा ब्राह्मण कुल में ही हुई होगी।
कहा जाता है कि उन्हें अपनेपाण्डित्य पर गर्व था और अपनी विद्वत्ता के इस अभिमान में आकर ही उन्होंनेयह प्रतिज्ञा कर ली थी कि जिसका कहा हुआ समझ नहीं पाऊंगा उसी का शिष्य होजाऊंगा। जैन अनुश्रुतियों में यह माना जाता है कि एक बार वेजब रात्रि में अपनेघर लौट रहेथेतब उन्होंने एक वृद्धा साध्वी के मुख सेप्राकृत की निम्न गाथा सुनी जिसका अर्थ वेनहीं समझ सके ।
चक्कीदुगं हरिपणगं पणगं चक्की केसवोचक्की । केसव चक्की केसव दु चक्की केसी अ चक्की अ ॥ - आवश्यकनिर्युक्ति, 421
अपनी जिज्ञासावृत्ति के कारण वेउस गाथा का अर्थ जाननेके लिए साध्वीजी के पास गए। साध्वीजी ने उन्हें अपने गुरु आचार्य जिनदत्तसूरि के पास भेज दिया। आचार्य जिनदत्तसूरि नेउन्हें धर्म के दोभेद बताए - ( 1 ) सकामधर्म और (2) निष्कामधर्म। साथ ही यह भी बताया कि निष्काम या निस्पृह धर्म का पालन करनेवाला ही 'भवविरह' अर्थात् मोक्ष को प्राप्त करता है। ऐसा लगता है कि प्राकृत भाषा और उसकी विपुल साहित्य-सम्पदा ने आचार्य हरिभद्र कोजैन धर्म के प्रति आकर्षित किया
और आचार्य द्वारा यह बताए जानेपर कि जैन साहित्य के तलस्पर्शी अध्ययन के लिए जैन मुनि की दीक्षा अपेक्षित है, अतः वेउसमें दीक्षित होगए। वस्तुतः एक राजपुरोहित के घर में जन्म लेनेके कारण वेसंस्कृत व्याकरण, साहित्य, वेद, उपनिषद्,