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पारस्परिक विद्वेष और घृणा अपनी चरम सीमा पर पहुंच चुकी थी। स्वयं आचार्य हरिभद्र कोभी इस विद्वेष भावना के कारण अपनेदोशिष्यों की बलि देनी पड़ी थी। हरिभद्र की महानता और धर्म एवं दर्शन के क्षेत्र में उनके अवदान का सम्यक् मूल्यांकन तो उनके युग की इन विषम परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में ही किया जा सकता है। आचार्य हरिभद्र की महानता तोइसी में निहित है कि उन्होंनेशुष्क वाग्जाल तथा घृणा एवं विद्वेष की उन विषम परिस्थितियों में भी समभाव, सत्यनिष्ठा, उदारता, समन्वयशीलता और सहिष्णुता का परिचय दिया। यहां यह अवश्य कहा जा सकता है कि समन्वयशीलता और उदारता के गुण उन्हें जैन दर्शन की अनेकान्त दृष्टि के रूप में वरासत में मिलेथे, फिर भी उन्होंने अपने जीवन-व्यवहार और साहित्य-सृजन में इन गुणों को जिस शालीनता के साथ आत्मसात् किया था वैसेउदाहरण स्वयं जैन - परम्परा में भी विरल ही हैं।
आचार्य हरिभद्र का अवदान धर्म-दर्शन, साहित्य और समाज के क्षेत्र में कितना महत्त्वपूर्ण है इसकी चर्चा के पूर्व यह आवश्यक है कि उनके जीवनवृत्त और युगीन परिवेश के सम्बंध में कुछ विस्तार से चर्चा कर लें।
जीवनवृत्त
यद्यपि आचार्य हरिभद्र नेउदार दृष्टि सेविपुल साहित्य का सृजन किया, किंतु अपनेसम्बंध में जानकारी देनेके सम्बंध में वेअनुदार या संकोची ही रहे। प्राचीन काल के अन्य आचार्यों के समान ही उन्होंने भी अपनेसम्बंध में स्वयं कहीं कुछ नहीं लिखा। उन्होंने ग्रंथ - प्रशस्तियों में जोकुछ संकेत दिए हैं उनसेमात्र इतना ही ज्ञात होता है कि वेजैन धर्म की श्वेताम्बर शाखा के 'विद्याधर कुल' सेसम्बंधित थे। इन्हें महत्तरा याकिनी नामक साध्वी की प्रेरणा सेजैनधर्म का बोध प्राप्त हुआ था, अतः उन्होंने अपनी अनेक रचनाओं में अपनेआपको याकिनीसूनु के रूप में प्रस्तुत किया है, साथ ही अपनेग्रंथों में अपनेउपमान 'भवविरह' का संकेत किया है। कुवलयमाला में उद्योतनसूरि भी इनका इसी उपनाम के साथ स्मरण किया है। जिन ग्रंथों में इन्होंनेअपनेइस ‘भवविरह' उपनाम का संकेत किया है वेग्रंथ निम्न हैं
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अष्टक, षोडशक, पंचाशक, धर्मबिन्दु, ललितविस्तरा, शास्त्रवार्ता समुच्चय, पंचवस्तुटीका, अनेकांतजयपताका, योगबिंदु, संसारदावानलस्तुति, उपदेशपद, धर्मसंग्रहणी और सम्बोध - प्रकरण । हरिभद्र के