SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 115
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 109 8 - समदर्शी आचार्य हरिभद्र ( ईस्वी सन् की 8वीं शती) आचार्य हरिभद्र जैनधर्म के प्रखर प्रतिभासम्पन्न एवं बहुश्रुत आचार्य माने जाते हैं। उन्होंने अपनी लेखनी के द्वारा विपुल एवं बहुआयामी साहित्य का सृजन किया है। उन्होंनेदर्शन, धर्म, योग, आचार, उपदेश, व्यंग्य और चरित - काव्य आदि विविध विधाओं के ग्रंथों की रचना की है। मौलिक साहित्य के साथ-साथ उनका टीका साहित्य भी विपुल है। जैन धर्म में योग सम्बंधी साहित्य के तोवे आदि प्रणेता हैं। इसी प्रकार आगमिक ग्रंथों की संस्कृत भाषा में टीका करनेवाले जैन - परम्परा में वेप्रथम टीकाकार भी हैं। उनके पूर्व तक आगमों पर जोनिर्युक्ति और भाष्य लिखेगए थेवेमूलतः प्राकृत भाषा में ही थे। भाष्यों पर आगमिक व्यवस्था के रूप में जोचूर्णियां लिखी गई थीं वे भी संस्कृत - प्राकृत मिश्रित भाषा में लिखी गईं। विशुद्ध संस्कृत भाषा में आगमिक ग्रंथों की टीका लेखन का सूत्रपात तोहरिभद्र नेही किया। भाषा की दृष्टि से उनके ग्रंथ संस्कृत और प्राकृत दोनों ही भाषाओं में मिलते हैं। अनुश्रुति तोयह है कि उन्होंने 1444 ग्रंथों की रचना की थी, किंतु वर्त्तमान में हमें उनके नाम चढ़े हुए लगभग 75 ग्रंथ उपलब्ध होतेहैं। यद्यपि विद्वानों की यह मान्यता है कि इनमें सेकुछ ग्रंथ वस्तुतः याकिनीसूनु हरिभद्र की कृति न होकर किन्हीं दूसरेहरिभद्र नामक आचार्यों की कृतियां हैं। पंडित सुखलालजी नेइनमें सेलगभग 45 ग्रंथों कोतोनिर्विवाद रूप सेउनकी कृति स्वीकार किया है, क्योंकि इनमें 'भव - विरह' ऐसेउपनाम का प्रयोग उपलब्ध हैं। इनमें भी यदि हम अष्टक - प्रकरण के प्रत्येक अष्टक को, षोडशकप्रकरण के प्रत्येक षोडश को विंशिकाओं में प्रत्येक विंशिका कोतथा पंचाशक में प्रत्येक पंचाशक कोस्वतंत्र ग्रंथ मान लें तोयह संख्या लगभग 200 के समीप पहुंच जाती है। इससेयह सिद्ध होता है कि आचार्य हरिभद्र एक प्रखर प्रतिभा के धनी आचार्य थे और साहित्य की प्रत्येक विधा कोउन्होंने अपनी रचनाओं सेसमृद्ध किया था। 9 प्रतिभाशाली और विद्वान होना वस्तुतः तभी सार्थक होता है जब व्यक्ति में सत्यनिष्ठा और सहिष्णुता हो । आचार्य हरिभद्र उस युग के विचारक हैं जब भारतीय चिंतन में और विशेषकर दर्शन के क्षेत्र में वाक् - छल और खण्डन- मण्डन की प्रवृत्ति बलवती बन गई थी। प्रत्येक दार्शनिक स्वपक्ष के मण्डन एवं परपक्ष के खण्डन में ही अपना बुद्धिकौशल मान रहा था। मात्र यही नहीं, दर्शन के साथ-साथ धर्म के क्षेत्र में भी
SR No.006191
Book TitleJain Sahityakash Ke Aalokit Nakshatra Prachin Jainacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy