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________________ 105 भगवती आराधना के यापनीय परंपरा का ग्रंथ होने के संबंध में दिगम्बर परंपरा के मूर्धन्य विद्वान् पं. नाथूरामजी प्रेमी के उपर्युक्त आधारों के अतिरिक्त एक अन्य महत्वपूर्ण आधार यह भी है कि उसमें श्वेताम्बर परंपरा में मान्य प्रकीर्णकों से अनेक गाथाएँ हैं। पं. कैलाशचन्द्रजी ने भगवती आराधना कीअपनी भूमिका में इसका उल्लेख किया है। जिन प्रकीर्णकों की गाथाएँ भगवती आराधना में मिलती हैं, उनमें आउरपच्चक्खाण, भत्तपरिणयसंथारग, मरण समाही प्रमुख हैं। यद्यपि पंडितजी गाथाओं की इस समानता कोतोसूचित करते हैं, फिरभीवेस्पष्टरूपसे यह नहीं कहते हैं कि इन ग्रंथोंसेयेगाथाएँ ली गई हैं। वस्तुतः, इन गाथाओं के आदान-प्रदान के संबंधमें तीन विकल्प हो सकते हैं। या तोयेगाथाएँभगवती आराधनासे इनग्रंथों में गई हों, या फिरभगवतीआराधनाकार ने इन ग्रंथोंसे येगाथाएँली हों, अथवायेगाथाएँदोनोंकीएकहीपूर्वपरंपरासेचलीआरही हों, जिन्हें दोनों ने लिया हो। इसमें प्रथम विकल्पहै कि भगवती आराधनासे इनग्रंथकारों ने ये गाथाएँ ली हों, यह इसलिये भी असंभव नहीं है कि ये ग्रंथ भगवती आराधना की अपेक्षा प्राचीन हैं। नन्दी, मूलाचार आदि में इनमें से कुछ ग्रंथों के उल्लेख मिलते हैं। पुनः, इन ग्रंथों में गुणस्थान जैसे विकसित सिद्धांत काभी निर्देशनहीं है। जबकि जगवती आराधना में वह सिद्धांत उपस्थित है। तीसरे, यह स्पष्ट है कि ये ग्रंथ आकार में लघु हैं, जबकि आराधनाएकविशालकायग्रंथ है। यह सुनिश्चित है कि प्राचीनस्तर के ग्रंथ प्रायः आकार में लघु होते हैं, क्योंकि उन्हें मौखिक रूप से याद रखना होता था, अतः वे आराधना की अपेक्षापूर्ववर्ती हैं। भगवती आराधना में विजहना (मृतक के शरीर को जंगल में रख देने) की जो चर्चा है, वह प्रकीर्णकों में तो नहीं है, किन्तु भाष्य और चूर्णि में है, अतः प्रस्तुत आराधना भाष्य चूर्णियों के काल की रचना रही होगी। अतः, यह प्रश्न तो उठता ही नहीं है कि ये गाथाएँ आराधनासे इन प्रकीर्णकों में गई हैं। ___ यदि हम यह स्वीकारन भी करें किये गाथाएँ श्वेताम्बर साहित्यसे आराधना में ली गई हैं, तो यह तो मानना ही होगा कि दोनों की कोई सामान्य पूर्व परंपराथी, जहाँ से दोनों ने ये गाथाएँली हैं और सामान्यपूर्वपरंपराश्वेताम्बर और यापनीय (बोटिक) की थी, क्योंकि दोनों आगम, प्रकीर्णक और नियुक्ति साहित्य के समान रूप से उत्तराधिकारी रहे हैं । अतः, भगवती आराधना में आउरपच्चक्खाण, भत्तपरिण्ण, संथारग, मरणसमाहि एवं निर्युक्त आदि की अनेकों गाथाओं की उपस्थिति यही सिद्ध
SR No.006191
Book TitleJain Sahityakash Ke Aalokit Nakshatra Prachin Jainacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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