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104 दिन किसीअच्छे स्थान में वैसे ही (बिना जलाये) छोड़ आने की विधि वर्णित है।" यह पारसी लोगों जैसी विधि अन्य किसी दिगम्बर ग्रंथ में अभी तक देखने में नहीं आई।
___12. नम्बर 1544 की गाथा में कहा है कि घोर अवमोदर्य या अल्प भोजन के कष्ट से बिना संक्लेश बुद्धि के भद्रबाहु मुनि उत्तम स्थान को प्राप्त हुए", परंतु दिगम्बर सम्प्रदाय की किसी भी कथा में भद्रबाहु का इस ऊनोदर-कष्ट से समाधिमरण का उल्लेख नहीं है।
13 नम्बर 428 की गाथा" में आधारवत्व गुण के धारक आचार्य को 'कप्पवबहारधारी' विशेषण दिया है और कल्प-व्यवहार, निशीथसूत्र, श्वेताम्बर सम्प्रदाय में प्रसिद्ध ग्रंथ हैं। इसी तरह 407 नम्बर की गाथा में निर्यापक गुरु की खोज के लिए परसंघ में जाने वाले मुनि की 'आयार-जीद-कप्पगुणदीवणा' होती है।" विजयोदया टीका में इस पद का अर्थ किया है, आचारस्य जीतसंज्ञितस्य कल्पस्य गुणप्रकाशन ।' आशाधर की टीका में लिखा है, 'आचारस्य जीदस्य कल्पस्य च गुणप्रकाशना । एतानि हि शास्त्राणि रत्नत्रयतामेव दर्शयन्ति।' पं. जिनदास शास्त्री ने हिन्दी अर्थ में लिखा है कि आचारशास्त्र, जीतशास्त्र और कल्पशास्त्र इनके गुणों का प्रकाशन होता है। अर्थात्, तीनों के मत से इन नामों के शास्त्र हैं और यह कहने की जरूरत नहीं कि आचारांगऔर जीतकल्प श्वेताम्बर सम्प्रदाय में हैं।
तीसरी गाथा की विजयोदया टीका- ‘अनुयोगद्वारादीनां बहूनामुपन्यासमकृत्वा दिङ्मात्रोपन्यासः' आदिमें अनुयोगद्वारसूत्र का उल्लेख किया है। ____भगवती आराधना में (गाथा 116, पृ. 277) 'पंचवदाणि जदीणं' आदि आवश्यक सूत्र की गाथा उद्धृत की है।
499वीं गाथा की विजयोदया में 'अंगबाह्येवा बहुविधविभत्ते सामायिक चतुर्विंशतीस्तवो, वंदना, प्रतिक्रमणं, वैनयिकं, कृतिकर्म, दशवैकालिकं , उत्तराध्ययनं, कल्पव्यव्यवहारः कल्पं महाकल्पं, पुण्डरीकं महापुण्डरीक इत्यादिनां विचित्रभेदेन विभक्तो।" 1123 वीं गाथा की टीका- “तथा चोक्तं कल्पे-हरित तणो सहिगुच्छा" आदि।
__इन सब बातों से सिद्ध है कि शिवार्य भी यापनीय संघ के हैं । इस तरह की और भीअनेक बातें मूल ग्रंथ में हैं जो दिगम्बर सम्प्रदाय के साथ मेल नहीं खाती।