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“नाचालेक्यं नेष्यते (आप ईष्यतेव) 'आचेलक्कुद्देसिय-सेज्जाहर रायपिंडकियिकम्मे' इत्यादेः पुरुषप्रति दशविधस्य स्थितिकल्पस्यमध्ये तदुपदेशात्।"
आराधना की 662 और 663 नंबर की गाथाएं भी दिगम्बरसम्प्रदाय के साथ मेल नहीं खाती हैं। उनका अभिप्राय यह है कि लब्धियुक्त और मायाचाररहित चार मुनिग्लानिरहित होकर क्षपक के योग्य निर्दोष भोजन और पानक (पेय) लाएं। इस पर पं. सदासुखजीने आपत्ति की है और लिखा है कि यहभोजन लाने की बात प्रमाणरूप नाहीं।' इसी तरह सेज्जागासणिसेज्जा" आदि गाथा पर (जो मूलाचार में भी 391 नं. पर है) कविवर वृंदावनदासजी को शंका हुई थी और उसका समाधान करने के लिए दीवान अमरचन्दजी को पत्र लिखा था। दीवानजी ने उत्तर दिया कि इसमें वैयावृत्ति करने वाला मुनि आहार आदि से मुनि का उपकार करे, परंतु यह स्पष्ट नहीं किया है कि आहार स्वयं हाथ से बनाकर दे। मुनि की ऐसी चर्या आचारांग में नहीं बतलाई।'
8. गाथा 1123 नं. की देसामिसिय सुत्तं' में तालपलंबसुतम्मि' पद में जिस सूत्र का उल्लेख किया है, वह कल्पसूत्र (बृहत्कल्प) का है, जिसका प्रारंभ है 'तालपलंबं ण कप्पदि'। आराधना की विजयोदया टीका में, ‘तथा चोक्तं' कहकर कल्प की दोगाथाएं और दी हैं और वेही आशाधर ने कल्पे' कहकर उद्धृत की हैं।
9. गाथा 79-83 में मुनि के उत्सर्ग और अपवाद मार्ग का विधान है, जिसके अनुसार मुनि वस्त्र धारण कर सकता है- “वसनसहितलिंगधारिणो हि वस्त्रखंडादिकं शोधनीयं महत्। इतरस्य पिच्छादिमात्र।"
10. गाथा 79-80-81 में शिवार्य ने भक्त प्रत्याख्यान के प्रसंग में कहा है कि उत्सर्गलिंग वाले (वस्त्रहीन) को तो, जो कि भक्त प्रत्याख्यान करना चाहता है, उत्सर्गलिंग ही चाहिए, परंतु जो अपवादलिंगी (सवस्त्र) है, उसे भी उत्सर्गलिंग ही प्रशस्त कहा है, अर्थात् उसे भी नग्न हो जाना चाहिए और जिसके लिंगसंबंधी तीन दोष दुर्निवार हों, उसे वसति में संस्तरारूढ़ होने पर उत्सर्गलिंग धारण करना चाहिए। बृहत्कल्पसूत्र, आवश्यकनियुक्ति भगवती आराधना की अनेक गाथाएं एक सी हैं। साधु के मृतक शरीर के संस्कार की गाथाएँ खास तौर से उल्लेखनीय हैं।
_11. आराधना का चालीसगाँव विजहना' नाम का अधिकार भी विलक्षण और अभूतपूर्व है, जिसमें मुनि के मृत शरीर को रात्रिभर जागरण करके रखने की और दूसरे