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________________ 102 हिन्दी टीका के कर्त्ता पं. जिनदास शास्त्री का है। संस्कृत टीकाकार पं. आशाधर ने तो इस गाथा की विशेष टीका इसलिए नहीं की कि वह सुगम है, परंतु अमितगति ने इसका संस्कृतानुवाद करना क्यों छोड़ दिया ? वे मेतार्य के आख्यान से परिचित नहीं थे, शायद इसी कारण । मेतार्यमुनि की कथा श्वेताम्बर सम्प्रदाय में बहुत प्रसिद्ध है" । वे एक चाण्डालिनी के लड़के थे, परंतु किसी सेठ के घर पले थे । अत्यंत दयाशील थे। एक दिन वे एक सुनार के यहाँ भिक्षा के लिये गये । उसने अपनी दुकान में उसी समय सोने के जौ बनाकर रक्खे थे। वह भिक्षा लाने के लिए भीतर गया और मुनि वहीं दुकान में खड़े रहे, जहाँ जौ रक्खे थे। इतने में एक कौंच (सारस) पक्षी ने आकार वे जौ चुग लिये । सुनार को संदेह हुआ कि मुनि ने ही जौ चुरा लिये हैं। मुनि ने पक्षी को चुगते तो देख लिया, परन्तु इस भय से नहीं कहा कि यदि सच बात मालूम हो जायेगी, तो सुनार सारस को मार डालेगा और उसके पेट में से अपने जौ निकाल लेगा, पर इससे सुनार को संदेह हो गया कि यह काम मुनि का ही है, इसने ही जौ चुराये हैं । तब उसने उन्हें बहुत कष्ट दिया और अंत में भीगे चमड़े में कस दिया। इससे उनका शरीरान्त हो गया और उन्होंने केवल ज्ञान प्राप्त किया । हरिषेणकृत कथाकोश में मेतार्य मुनि की कथा है, परंतु उसमें श्वेताम्बर कथा से बहुत भिन्नता है । गाथा 6 की विजयोदया टीका में लिखा है- “संस्कारिताभ्यन्तरतपसा इति वा असम्बद्धं । अन्तरेणापि बाह्यतपोऽनुष्ठानं अन्तर्मुहूर्तमात्रे णाधिगतरत्नत्रयाणां भद्दणराजप्रभृतीनां पुरुदेवस्य भगवतः शिष्याणां निर्वाणगमनमागमे प्रतीतमेव ।" यह भद्दणराज आदि की अन्तर्मुहूर्त में निर्वाण प्राप्ति की कथा भी दिगम्बर साहित्य में अज्ञात है । इसी तरह, गाथा 17 की टीका में भी भद्दणादयो राजपुत्रास्तस्मिन्नेव भवे त्रसतामापन्नाः अतएवानादिमिथ्यादृष्टयः प्रथम जिनपादमूले श्रुतधर्मसाराः समारोपितरत्नत्रयाः । 7. दस स्थितिकल्पों की नामवाली गाथा, जिसकी टीका पर अपराजित को यापनीय सिद्ध किया गया है, जीतकल्प- भाष्य की 1972 नं. की गाथा है । श्वेताम्बर सम्प्रदाय की अन्य टीकाओं और नियुक्तियों में भी यह मिलती है और प्रभाचन्द्र ने अपने प्रमेयकमलमार्त्तण्ड के स्त्री-मुक्ति-विचार ( नया एडीशन, पृ. 131) प्रकरण में इसका उल्लेख श्वेताम्बर सिद्धांत के रूप में ही किया है -
SR No.006191
Book TitleJain Sahityakash Ke Aalokit Nakshatra Prachin Jainacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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