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अंत में हम यह कह सकते हैं कि बौद्ध दर्शन में, चाहे श्रामण्य या संन्यास का प्रत्यय हो, चाहे निर्वाण का, वह किसी भी अर्थ में सामाजिकता का विरोधी नहीं है। बौद्ध आचार्यों की दृष्टि और विशेषकर महायान आचार्यों की दृष्टि सदैव ही सामाजिक चेतना से परिपूर्ण रही है और उन्होंने सदैव ही लोक मंगलकारी दृष्टि को जीवन का आदर्श माना है। आचार्य शांतिदेव बोधिचर्यावतार (8/125-129) में बौद्ध धर्म
और दर्शन में सामाजिक चेतना कितनी उदात्त है, इसका स्पष्ट चित्रण करते हैं। हम यहां उनके वचनों को यथावत प्रस्तुत कर रहे हैं
यदि दास्यामि किंभोक्ष्ये इत्यात्मार्थे पिशाचता।
यदिभोक्ष्ये किं ददामीति परार्थ देवराजता॥बोधि. 8/125 'यदि दूंगा तो मैं क्या खाऊंगा' यह विचार पिशाचवृत्ति है। अपने खाने को दूसरे की अपेक्षा पराये के लिए देने की भावना रखना ही देवराजता है।
आत्मार्थ पीडयित्वान्यं नरकादिषु पच्यते।
आत्मानं पीडयित्वा तु परार्थ सर्वसंपदः ॥ बोधि. 8/126 अपने लिए दूसरे को पीड़ा देकर (मनुष्य को) नरक आदि में पकना पड़ता है। पर दूसरे के लिए स्वयं क्लेश उठाने से (मनुष्य को) सब सम्पत्तियां मिलती हैं।
दुर्गतिर्नीचता मोयं ययैवात्मोन्नतीच्छया।
तामेवान्यत्र संक्राम्यसुगतिः सत्कृतिर्मतिः॥बोधि. 8/127 अपने प्रकर्ष की जिस इच्छा से दुर्गति, परवशता और मूर्खता मिलती है, उसी (इच्छा) का दूसरों के हित में संक्रमण करने से सुगति, सत्कार और प्रज्ञा मिलती
आत्मार्थ परमाज्ञाप्य दासत्वायद्यनुभूयते।
परार्थ त्वेनमाज्ञाप्य स्वामित्वाद्यनुभूयते ॥ बोधि. 8/128 अपने स्वार्थ के लिए दूसरे को आज्ञा देकर, उस कर्म के परिणाम स्वरूप दासता आदि का अनुभव करना पड़ता है। किंतु दूसरे के हितए के लिए अपने को आज्ञा देकर उस कर्म के फलस्वरूप प्रभुता आदि का अनुभव करने को मिलता है।
ये केचिद् लोके सर्वे ते स्वसुखेच्छया। ये केचित् सुखिता लोके सर्वे तेऽन्यसुखेच्छया॥
बोधि.8/129
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