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पहुंच सकते हैं कि निर्वाण के प्रत्यय की सामाजिक उपादेयता भी है। वह लोक मंगल और मानव-कल्याण का एक महान आदर्श माना जा सकता है। जन-जन को दुःखों से मुक्त करना ही वास्तविक मुक्ति है। बौद्ध दार्शनिकों ने वैयक्तिक मुक्ति की अपेक्षा लोककल्याण के लिए प्रयत्नशील बने रहने को अधिक महत्व दिया है। बौद्ध-दर्शन में बोधिसत्व का जो आदर्श प्रस्तुत किया गया है, वह हमें स्पष्ट रूप से यह बताता है कि केवल वैयक्तिक मुक्ति को प्राप्त कर लेना ही जीवन का अंतिम लक्ष्य नहीं है। बोधिसत्व तो लोकमंगल के लिए अपने बंधन और दुःख की कोई परवाह नहीं करता, वह कहता है
बहुनामेकदुःखेन यदि दुःखं विगच्छति। उत्पाद्यमेव तद् दुःखं सदयेन परात्मनोः ॥ बोधि. 8/105 मुच्यमानेषु सत्त्वेषु ये ते प्रमोद्यसागराः।।
तैरेव ननु पर्याप्तं, मोक्षेणारसिकेन किम् ॥ बोधि. 8/108 यदि एक के कष्ट उठाने से बहुतों का दुःख दूर होता हो, तो करुणापूर्वक उनके दुःखों को दूर करना ही अच्छा है। प्राणियों को दुःखों से मुक्त होता हुआ देखकर जो आनंद प्राप्त होता है, वह क्या कम है, फिर नीरस निर्वाण प्राप्त करने की इच्छा की क्या आवश्यकता है?
__इस प्रकार हम देखते हैं कि निर्वाण की अवधारणा भी सामाजिकता की विरोधी नहीं है। बौद्ध दर्शन में निर्वाण का अर्थ है आत्मभाव का पूर्णतया विगलन। वस्तुतः मैं, अहं और मेरेपन के भाव से मुक्त हो जाना ही निर्वाण प्राप्त करना है। इस दृष्टि से निर्वाण का अर्थ है, अपने आपको मिटाकर समष्टि या समाज में लीन कर लेना। बौद्ध दर्शन में वही व्यक्ति निर्वाण प्राप्त कर सकता है जो अपने व्यक्तित्व को समष्टि में लीन कर दे। आचार्य शांतिदेव बोधिचर्यावतार' में लिखते हैं
सर्वत्यागश्च निर्वाणं, निर्वाणार्थि च मे मनः ।
त्यक्तवं चेन्मया सर्वं वरं सत्वेषु दीयताम् ॥ बोधि. 3/11 अर्थात् यदि सर्व का त्याग ही निर्वाण है और मेरा मन निर्वाण को चाहता है तो सब कुछ जो त्याग करना है, उसे अन्य प्राणियों को क्यों न दे दिया जाए। इस प्रकार शांतिदेव की दृष्टि में व्यक्ति का पूर्णतः समष्टि में लीन हो जाना अर्थात् अपने को प्राणिमात्र की सेवा में समर्पित कर देना ही साधना का एकमात्र आदर्श है। अतः निर्वाण का प्रत्यय सामाजिकता का विरोधी है, यह धारणा भ्रांत है।
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