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संसार में जो कोई दुःखी है, वे सब अपनी सुखेच्छा के कारण। संसार में जो कोई सुखी है, वे परकीय सुखेच्छा के कारण हैं।
इस समग्र चिंतन में यह फलित होता है कि बौद्धधर्म में लोकमंगल की उदार भावना भगवान बुद्ध से लेकर परवर्ती आचार्यों में भी यथावत कायम रही है। भगवान बुद्ध ने जो बहुजन हिताय बहुजन सुखाय' का उद्घोष किया था वह बौद्ध धर्म दर्शन का मुख्य अधिष्ठान है।
ऐसी लोकमंगल की सर्वोच्च भावना का प्रतिबिम्ब हमें आचार्य शांतिदेव के 'शिक्षासमुच्चय' नामक ग्रंथ में मिलता है। हिन्दी में अनूदित उनकी निम्न पंक्तियां मननीय हैं
इस दुःखमय नरलोक में, जितने दलित, बन्धग्रसित, पीड़ित विपत्ति विलीन हैं, जितने बहुधन्धी विवेक विहीन हैं। जो कठिन भय से और दारुण शोक से अतिदीन हैं, वे मुक्त हों निजबंध से, स्वच्छन्द हों सब द्वन्द्व से, छूटे दलन के फन्द से, हो ऐसा जग में, दुःख से विलखे न कोई, वेदनार्थ हिले न कोई, पाप कर्म करे न कोई, असन्मार्ग धरे न कोई, हो सभी सुखशील, पुण्याचार धर्मव्रती, सबका हो परम कल्याण, सबका हो परम कल्याण ॥
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