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अव्याकृत का सम्यक्
अर्थ
बुद्ध ने जीव और शरीर की भिन्नता, तथागत की परिनिर्वाण के पश्चात् की स्थिति आदि प्रश्नों को अव्याकृत-कोटि में रखा है। बुद्ध का अव्याकृत कहने का आशय यही है कि अस्ति और नास्ति की कोटियों से सीमित व्यावहारिक भाषा उसे बता पाने में असमर्थ है। हां और ना में इसका कोई उत्तर नहीं दिया जा सकता। जैन- दर्शन में जो अर्थ 'अवक्तव्य' का है, वही अर्थ बौद्ध दर्शन में 'अव्याकृत' का है। बुद्ध मौन क्यों रहे?
बुद्ध के मौन रहने का अर्थ यह है कि आत्मा-सम्बंधी प्रश्नों का उत्तर हां और ना में नहीं दिया जा सकता, अतः जहां किसी एकान्तिक मान्यता में जाने की सम्भावना हो, वहां मौन रहना ही अधिक उपयुक्त है। बुद्ध ने आनंद के समक्ष अपने मौन का कारण स्पष्ट कर दिया था कि वे यदि 'हां' कहते, तो शाश्वतवाद हो जाता है और 'ना' कहते, तो उच्छेदवाद हो जाता।
जैन और बौद्ध - दृष्टिकोण की तुलना
महावीर तथा बुद्ध- दोनों ही आत्मा के सम्बंध में उच्छेदवादी एवं शाश्वतवादी एकान्तिक दृष्टिकोणों के विरोधी हैं। दोनों में अंतर केवल यह है कि जहां महावीर विधेयात्मक-भाषा में आत्मा को नित्यानित्य कहते हैं, वहीं बुद्ध निषेधात्मक - भाषा में उसे अनुच्छेदाशाश्वत कहते हैं। बुद्ध जहां अनित्य- आत्मवाद और नित्य - आत्मवाद के दोषों को दिखाकर दोनों दृष्टिकोणों को अस्वीकार कर देते हैं, वहां महावीर उन एकान्तिकमान्यताओं के अपेक्षामूलक समन्वय के आधार पर उनके दोषों का निराकरण करने का प्रयत्न करते हैं। 23
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बुद्ध ने आत्मा के परिवर्तनशील पक्ष पर अधिक बल दिया और इसी आधार पर उसे अनित्य भी कहा और यह भी बताया कि इस परिवर्तनशील चेतना से स्वतंत्र कोई आत्मा नहीं है या क्रिया से भिन्न कारक की सत्ता नहीं है । बुद्ध अविच्छिन्न, परिवर्तनशील चेतना-प्रवाह के रूप में आत्मा को स्वीकार करते हैं, लेकिन बुद्ध का यह मन्तव्य जैनविचारणा से उतना अधिक दूर नहीं है, जितना कि समझा जाता है। जैन- विचारणा द्रव्यआत्मा की शाश्वतता पर बल देकर यह समझती है कि उसका मन्तव्य बौद्ध - विचारणा का विरोधी है, लेकिन जैन- विचारणा में द्रव्य का स्वरूप क्या है ? यही न कि जो गुण और पर्याय से युक्त हैब वह द्रव्य है। 24
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