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________________ (विभवतृष्णा), अतः उस तृष्णा के सभी निवेशनों (आश्रय स्थानों) को उच्छिन्न करने लिए बुद्ध ने अनात्म का उपदेश दिया। वस्तुतः, अनात्मवाद विनम्रता की आत्यन्तिक कोटि, अनासक्ति की उच्चतम अवस्था और आत्मसंयम की एकमात्र कसौटी है । इस अनात्म का उपदेश उन्होंने तृष्णा के प्रहाण एवं ममत्व के विसर्जन के लिए दिया। यदि उन्हें अनात्म का अर्थ 'आत्मा नहीं' अभिप्रेत होता, तो वे उच्छेदवाद का विरोध ही क्यों करते? बुद्ध ने उच्छेदवाद को अस्वीकार किया है, अतः बौद्ध-मन्तव्य में अनात्म का अर्थ 'आत्मा नहीं है' करना अनुचित है। आत्मा (अत्ता) का अर्थ पिटक-साहित्य में जहां अनात्म (अनत्त) का प्रयोग हुआ है, वहीं उसमें आत्मा (अत्ता) शब्द का भी प्रयोग हुआ है। बुद्ध ने यह भी उपदेश दिया है कि आत्मा की शरण स्वीकार करो (अत्तसरण), आत्मा को ही अपना प्रकाश बनाओ (अत्तदीप), आत्मा की खोज करो (अत्तानं गवेसेय्याथ ) । इसी आधार पर आनंद के . कुमार स्वामी, कु. हार्नर और डॉ. राधाकृष्णन् ने बौद्ध दर्शन में औपनिषदिक आत्मा को खोजने का प्रयास किया है, लेकिन यह प्रयत्न सम्यक् नहीं है। श्री उपाध्याय के शब्दों में यह अनधिकारपूर्ण प्रयत्न ही है। यहां बुद्ध किसी पारमार्थिक अविनाशी एवं अक्षय आत्मा की शरण ग्रहण करने या खोज करने की बात नहीं कहते हैं। सम्पूर्ण बुद्ध वचनों के प्रकाश में यहां आत्मा शब्द का अर्थ स्वयं (Self) या परिवर्तनशील स्व है । जिस प्रकार अनात्म का अर्थ 'अपना नहीं' है, उसी प्रकार आत्म का अर्थ 'अपना' या 'स्वयं' है। 22 अनित्य का अर्थ अनित्य का अर्थ विनाशशील माना जाता है, लेकिन यदि अनित्य का अर्थ विनाशी करेंगे, तो हम फिर उच्छेदवाद की ओर होंगे। वस्तुतः, अनित्य का अर्थ हैपरिवर्तनशील । परिवर्तन और विनाश अलग-अलग हैं। विनाश में अभाव हो जाता है, परिवर्तन में वह पुनः एक नए रूप में उपस्थित हो जाता है, जैसे बीज पौधे के रूप में परिवर्तित हो जाता है, विनष्ट नहीं होता। बुद्ध सत्व की अनित्यता या क्षणिकवाद का उपदेश देते हैं, तो उनका आशय यह नहीं है कि वह विनष्ट हो जाने वाला है, वरन् यही है कि वह परिवर्तनशील है, वह एक क्षण भी बिना परिवर्तन हीं रहता। बौद्ध दर्शन में अनित्य और क्षणिक का मतलब है - सतत् परिवर्तनशील । जैन दर्शन जिसे परिणामी कहता है, उसे ही बौद्ध दर्शन में अनित्य या क्षणिक कहा जाता है। 50
SR No.006189
Book TitleBauddh Dharm Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages112
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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