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अपितु प्रक्रिया की कल्पना है। क्योंकि यदि प्रक्रिया को सतत् चलना है तो हमें अनन्त बुद्धों की अवधारणा को स्वीकार करना होगा। यदि प्रत्येक चित्तधारा में बोधिचित्त के उत्पाद की सम्भावना है, तो ऐसी स्थिति में बोधिचित्त एक नहीं अनेक भी हो सकते हैं। वस्तुतः बुद्ध के सम्बंध में जो एकत्व और अनेकत्व के संदर्भ उपलब्ध हैं, वे भी कोई विरोधाभार, प्रस्तुत नहीं करते। प्रक्रिया के रूप में बुद्ध एक है, किंतु प्रक्रिया के घटकों के रूप में वे अनेक भी हैं। बुद्ध अनेक रूपों में प्रकट होते हैं इसका तात्पर्य यह नहीं कि कोई व्यक्ति अनेक रूपों में प्रकट होता है, अपितु यह कि लोकमंगलकारी चित्तधारा, जो एक प्रक्रिया है, अनेक रूपों में प्रकट होती हुई अनेक रूपों में लोकमंगल करती है। बुद्ध के द्वारा अनेक सम्भोगकाय धारण करने का मतलब यह है कि बोधिचित्तधारा के अनेक चित्तक्षण अनेकानेक उपायों से लोकहित का साधन करते हैं। महायान परम्परा में बोधिचित्त के इस संकल्प का, कि जब तक समस्त प्राणी निर्वाण लाभ न कर लें या दुःख से मुक्त नहीं हो जाते, तब तक मैं लोक-मंगल के लिए सतत् प्रयत्नशील रहूंगा, तात्पर्य यह है कि चित्तसंतति की धारा सतत रूप से लोकमंगल में तत्पर रहने का निर्णय लेती है और तदनुसार अपनी चित्तसंतति के प्रवाह को बनाए रखती है। पुनः बुद्ध के संदर्भ में जो यह कहा जाता है कि बुद्ध न तो निर्वाण में स्थित हैं और न संसार में। इसका कारण यह है कि महायान परम्परा में बुद्ध के दो प्रमुख लक्षण माने गए हैं- प्रज्ञा और करुणा। प्रज्ञा के कारण बोधिचित्त संसार में प्रतिष्ठित नहीं होता। दूसरे शब्दों में प्रज्ञा उन्हें संसार में प्रतिष्ठित नहीं होने देती। (कोई भी प्रज्ञायुक्त पुरुष दुःखमय संसार में रहना नहीं चाहेगा), किंतु दूसरी ओर बुद्ध अपने करुणा-लक्षण के कारण निर्वाण में भी प्रतिष्ठित नहीं हो पाते। उनकी करुणा उन्हें निर्वाण में भी प्रतिष्ठित नहीं होने देती, क्योंकि कोई भी परमकारुणिक व्यक्तित्व दूसरों को दुःखों में लीन देखकर कैसे निर्वाण में प्रतिष्ठित रह सकता है।
अतः बोधिचित्त न तो वे निर्वाण प्राप्ति के कारण निष्क्रिय होते हैं और न लोकमंगल करते हुए भी संसार में आबद्ध होते हैं। यह बोधिचित्त भी व्यक्ति नहीं प्रक्रिया ही होता है जो निर्वाण को प्राप्त करके भी लोकमंगल के हेतु सतत् क्रियाशील बना रहता है और यही लोकमंगल के क्रियाशील बोधि प्राप्त चित्त सन्तति ही बुद्ध या बोधिसत्व है। अतः बुद्ध नित्य-व्यक्तित्व नहीं अपितु नित्य प्रक्रिया है और बुद्ध की नित्यता का अर्थ लोकमंगल की प्रक्रिया की नित्यता है।
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