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________________ संदर्भ - 1. द्रष्टव्य - तीर्थंकर, बुद्ध और अवतार, सम्पादक- डॉ. सागरमल जैन, लेखक डॉ. रमेशचंद्र गुप्त, प्रकाशक-पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी-5, पृ. 169172 2. द्रष्टव्य - बौद्धधर्म के विकास का इतिहास, पृ. 341 3. सद्धर्मपुण्डरीक, पृ. 206-207 4. महायानसूत्रालंकार, पृ. 45-46 बौद्ध अनात्मवाद की सम्यक् समझ आवश्यक भगवान बुद्ध भी आत्मा की शाश्वतवादी और उच्छेदवादी-धारणाओं को नैतिक एवं साधनात्मक-जीवन की दृष्टि से अनुचित मानते हैं। संयुत्तनिकाय में बुद्ध ने आत्मा के सम्बंध में शाश्वतवादी और उच्छेदवादी-दोनों प्रकार की धारणाओं को मिथ्यादृष्टि कहा है। वे कहते हैं, रूप, वेदना, संज्ञा आदि के स्वरूप का यथार्थ ज्ञान नहीं होने पर ऐसी मिथ्यादृष्टि उत्पन्न होती है- मैं मरकर नित्य, ध्रुव, शाश्वत, अविपरिणामधर्मा होऊंगा अथवा ऐसी मिथ्यादृष्टि उत्पन्न होती है कि सभी उच्छिन्न हो जाते हैं, लुप्त हो जाते हैं, मरने के बाद नहीं रहते''बुद्ध की दृष्टि में यदि यह माना जाता है कि वही अपरिवर्तिष्णु आत्मा मरकर पुनर्जन्म लेती है, तो शाश्वतवाद हो जाता है और यदि यह माना जाए कि माता-पिता के संयोग से चार महाभूतों से आत्मा उत्पन्न होती है और इसलिए शरीर के नष्ट होते ही आत्मा भी उच्छिन्न, विनिष्ट और विलुप्त होती है, तो यह उच्छेदवाद है।12 अचेलकाश्यप को बुद्ध ने सविस्तार यह स्पष्ट कर दिया था कि वे शाश्वतवाद और उच्छेदवाद-इन दो अन्तों (एकान्तिक-मान्यताओं) को छोड़कर सत्य को मध्यम प्रकार से बताते हैं। बुद्ध सदैव ही इस सम्बंध में सतर्क रहे हैं कि उनका कोई भी कथन ऐसा न हो, जिसका अर्थ शाश्वतवाद अथवा उच्छेदवाद के रूप में लगाया जा सके, इसलिए बुद्ध ने दुःख स्वकृत है या परकृत, जीव भिन्न है और शरीर भिन्न है या जीव वही है, जो शरीर है, तथागत का मरने के बाद क्या होता है? आदि प्रश्नों का निश्चित उत्तर न देकर (45
SR No.006189
Book TitleBauddh Dharm Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages112
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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