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भारतीय न्यायशास्त्र के प्रारम्भिक विकास के काल में जैन, बौद्ध, न्याय एवं सांख्य दर्शन में कुछ एकरूपता थी, जो कालांतर में नहीं रही। प्रमाण संख्या को लेकर जहां जैन परम्परा में कालक्रम में अनेक परिवर्तन हुए हैं वहां बौद्ध परम्परा में उपायहृदय के पश्चात् एक स्थिरता परिलक्षित होती है। उपायहृदय के पश्चात् दिग्नांग से लेकर परवर्ती सभी बौद्ध आचार्यों ने प्रत्यक्ष और अनुमान ऐसे दो ही प्रमाण माने हैं।
प्रमाणों की संख्या को लेकर जैन परम्परा में हमें तीन प्रकार की अवधारणाएं मिलती हैं। सर्वप्रथम आगम युग में जैन परम्परा में चार प्रमाण स्वीकार किए गए थे। उसके पश्चात् तत्त्वार्थसूत्र (2री-3री शती) में प्रमाण के प्रत्यक्ष एवं परोक्ष ऐसे दो भेद किए गए। सिद्धसेन दिवाकर (चौथी शती) ने अपने न्यायावतार में आगमिक युग के औपम्य को अलग करके तीन प्रमाण ही स्वीकार किए। तत्त्वार्थसूत्र में पांच ज्ञानों को प्रमाण कहकर मति और श्रुत ज्ञान को परोक्ष प्रमाण के रूप में तथा अवधि, मनःपर्यय और केवल ज्ञान को प्रत्यक्ष प्रमाण के रूप में प्रस्तुत किया था। उमास्वाति का प्रमाणवाद वस्तुतः आगमिक पंच ज्ञानवाद से प्रभावित है। जबकि सिद्धसेन की प्रमाण व्यवस्था आगमिक एवं अन्य दर्शनों के प्रमाणवाद से प्रभावित है। सिद्धसेन के पश्चात् और अकलंक के पूर्व तक हरिभद्र आदि जैन आचार्य प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम ये तीन प्रमाण ही मानते रहे, किंतु लगभग आठवीं शताब्दी में अकलंक ने सर्वप्रथम स्मृति, प्रत्यभिज्ञा
और तर्क को प्रमाण मानकर जैन दर्शन में प्रमाणों की संख्या छः निर्धारित की। अकलंक ने अपने ग्रंथों में स्मृति, प्रत्यभिज्ञा और तर्क को स्वतंत्र प्रमाण सिद्ध करने के लिए अनेक तर्क भी प्रस्तुत किए हैं, उनके पश्चात् सिद्धर्षि, विद्यानंद, प्रभाचंद्र, वादिदेवसूरि, हेमचंद्र आदि जैन आचार्यों ने अपनी-अपनी कृतियों में विस्तार से स्मृति, प्रत्यभिज्ञा और तर्क का स्वतंत्र प्रमाण्य स्थापित किया है। विस्तारभय से यहां उन तर्कों को प्रस्तुत करना सम्भव नहीं है, फिर भी यह ज्ञातव्य है कि अकलंक, विद्यानंद, प्रभाचंद्र, वादिदेवसूरि आदि ने बौद्धाचार्यों द्वारा स्मृति, प्रत्यभिज्ञा और तर्क को प्रमाण नहीं मानने का अनेक युक्तियों से खण्डन किया है। - जहां तक आगम प्रमाण का प्रश्न है, बौद्ध वैशेषिकों के समान ही इसका अंतर्भाव अनुमान प्रमाण में करते हैं, जबकि जैन उसे स्वतंत्र प्रमाण मानते हैं, किंतु यहां यह ज्ञातव्य है कि, जैन दार्शनिकों के समान ही धर्मकीर्ति भी शब्द को पौरुषेय मानते हैं, फिर भी वे उसे स्वतंत्र प्रमाण नहीं मानते, जबकि जैन दार्शनिक अकलंक, प्रभाचंद्र,
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