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________________ वादिदेवसूरि, हेमचंद्र आदि ने आगम को स्वतंत्र प्रमाण मानने के संदर्भ में अनेक युक्तियां दी हैं, साथ ही बौद्धों द्वारा आगम को अनुमान में समाहित करने के दृष्टिकोण की विस्तृत समीक्षा भी की है। जैन दार्शनिकों का यह वैशिष्ट्य है कि उन्होंने स्मृति, प्रत्यभिज्ञा, तर्क, अनुमान और आगम का परोक्षप्रमाण में अन्तर्भाव करके भी प्रत्येक को स्वतंत्र रूप से प्रमाण माना है। सम्पूर्ण भारतीय दर्शनों में स्मृति, प्रत्यभिज्ञा और तर्क को स्वतंत्र रूप से प्रमाण का स्थान देना केवल जैनदर्शन का ही वैशिष्ट्य है। अन्य दर्शनों ने इनकी उपयोगिता को तो स्वीकार किया, किंतु उन्हें स्वतंत्र प्रमाण होने का गौरव नहीं दिया। प्रमेय का स्वरूप एवं समीक्षा जहां तक प्रमेय का प्रश्न है, जैन दर्शन में उत्पादव्यघ्रौव्यलक्षणयुक्त सामान्य, विशेषात्मक और द्रव्यपर्यायात्मक वस्तुतत्त्व या अर्थ को ही समस्त प्रमाणों का विषय माना है। जैन दार्शनिक बौद्ध दार्शनिकों के समान अलग-अलग प्रमाणों के लिए अलगअलग प्रमेयों की व्यवस्था नहीं करते हैं। वस्तुतः जहां बौद्ध प्रमाणव्यवस्थावादी हैं वहां जैन प्रमाणसंप्लववादी हैं। बौद्ध दर्शन में प्रमेय दो हैं- 1. स्वलक्षण और 2. सामान्य लक्षण। पुनः उसके अनुसार प्रत्यक्ष प्रमाण का विषय स्वलक्षण अर्थ अर्थात् परमार्थसत् है और अनुमान प्रमाण का विषय सामान्यलक्षण या संवृत्तिसत् है। यद्यपि बौद्ध दार्शनिक धर्मकीर्ति स्वलक्षण को ही एक मात्र प्रमेय मानते हैं, क्योंकि उसी में अर्थक्रियासामर्थ्य है। जैन दार्शनिकों ने धर्मकीर्ति के दर्शन को विज्ञानद्वैतवाद माना है, विज्ञानद्वैतवादी होने के कारण धर्मकीर्ति के मत में परमार्थसत् तो एक ही हैं अतः प्रमेय भी भिन्न-भिन्न नहीं हो सकते, यदि सामान्यलक्षण को प्रमेय कहा जाएगा तो वह तो काल्पनिक और अवस्तु रूप है, वह प्रमेय नहीं हो सकता है। पुनः जैन दार्शनिकों का कहना है प्रमेय या अर्थ जब भी प्रतिभासित होता है, वह सामान्य विशेषात्मक या द्रव्यपर्यायात्मक ही होता है। द्रव्य से रहित पर्याय और पर्याय से रहित द्रव्य की अनुभूति नहीं है, उसी प्रकार सामान्य से रहित विशेष और विशेष से रहित सामान्य की भी कहीं अनुभूति नहीं है। व्यष्टि में समष्टि और समष्टि में व्यष्टि अनुस्यूत हैं, अतः बौद्ध दार्शनिकों का सामान्यलक्षण प्रमेय नहीं हो सकता, क्योंकि वह वस्तुसत् या स्वलक्षण नहीं है। पुनः अकलंक का कहना है कि मात्र स्वलक्षण भी प्रमेय नहीं हो सकता, क्योंकि उसका भी अलग से कहीं बोध नहीं होता है और न वह अभिधेय होता है। अतः प्रमाण का विषय या प्रमेय तो सामान्यविशेषात्मक या द्रव्यपर्यायात्मक वस्तु ही हैं। पुनः बौद्धों ने जिसे स्वलक्षण कहा उसे या तो क्षणिक मानना (32)
SR No.006189
Book TitleBauddh Dharm Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages112
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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