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प्रमाणों के प्रकार
जैन दर्शन में प्रमाणों की संख्या में कालक्रम में परिवर्तन होता रहा है। अर्धमागधी जैन आगमों में भगवतीसूत्र एवं अनुयोगद्वारसूत्र में प्रत्यक्ष, अनुमान, औपम्य और आगम ऐसे चार प्रमाण प्रतिपादित किए गए हैं। स्थानांगसूत्र में इन्हीं चार प्रमाणों को हेतु शब्द से अभिहित किया गया है। इसी सूत्र में अन्यत्र व्यवसाय शब्द से अभिहित करते हुए प्रमाणों के तीन भेद बताए गए हैं- 1. प्रत्यक्ष, 2. प्रात्ययिक और 3. अनुगामी। इस प्रकार जैन आगमों में कहीं चार और कहीं तीन प्रमाणों के उल्लेख मिलते हैं। आगमों में जिन चार या तीन प्रमाणों का उल्लेख हुआ है वे क्रमशः न्यायदर्शन एवं सांख्यदर्शन को भी मानय रहे हैं। चाहे इन प्रमाणों के स्वरूप एवं भेद-प्रभेद विवेचनाओं में अंतर हो, किंतु नामों के संदर्भ में कोई मतभेद नहीं है। प्रत्यक्ष प्रमाण के भेदों के सम्बंध में जैनों ने न्यायदर्शन का अनुकरण न करके अपनी ही दृष्टि से चर्चा की है और वहां प्रत्यक्ष के 'केवल' और 'नो केवल' ऐसे दो विभाग किए गए हैं। यही दोनों विभाग परवर्ती जैन न्याय के ग्रंथों में भी सकल प्रत्यक्ष और विकल प्रत्यक्ष के रूप में उपलब्ध होते हैं। अनुयोगद्वारसूत्र में इन्द्रियज्ञान को प्रत्यक्ष मानकर उसके इन्द्रिय प्रत्यक्ष और नोइन्द्रिय प्रत्यक्ष अर्थात् मानस प्रत्यक्ष ऐसे दो भेद किए हैं। इस प्रकार प्रत्यक्ष प्रमाण का उल्लेख होते हुए भी उसके भेद-प्रभेद की अपेक्षा से जैन दर्शन और न्याय दर्शन में मतभेद है।
यहां यह भी ज्ञातव्य है कि जैन आगमों में प्रमाण के जो चार भेद किए गए हैं वे ही चार भेद बौद्ध ग्रंथ उपायहृदय में भी मिलते हैं। (अथ कतिविधं चतुर्विधं प्रमाणम्। प्रत्यक्षमनुमानमुपमानमागमचेति- उपायहृदय, पृ.13)
उपायहृदय को यद्यपि चीनी स्रोत नागार्जुन की रचना मानते हैं, किंतु जहां नागार्जुन वैदल्यसूत्र में एवं विग्रहव्यावर्तनी में प्रमाण एवं प्रमेय का खण्डन करते हैं, वहां उपायहृदय में वे उनका मण्डन करें, यह संभव प्रतीत नहीं होता, फिर भी यह ग्रंथ बौद्ध न्याय का प्राचीन ग्रंथ होने के साथ-साथ न्यायदर्शन और जैनों की आगमिक प्रमाण व्यवस्था का अनुसरण करना प्रतीत होता है। यहां एक विशेष महत्त्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि जैनग्रंथ अनुयोगद्वारसूत्र, बौद्धग्रंथ उपायहृदय, न्यायदर्शन और सांख्यदर्शन में अनुमान प्रमाण के पूर्ववत्, शेषवत् और दृष्टसाधर्म्यवत्- ऐसे तीन भेद भी समान रूप से उपलब्ध होते हैं। यहीं ज्ञातव्य है कि, बौद्धग्रंथ उपायहृदय, न्यायसूत्र और सांख्यदर्शन में दृष्टसाधर्म्यवत् के स्थान पर सामान्यतोदृष्ट' शब्द का उल्लेख हुआ है। ऐसा लगता है कि,
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