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(9वीं शती) ने प्रमाण के अविसंवादिता नामक लक्षण का खण्डन किया है। विद्यानंद का कहना है कि बौद्धों ने स्वसंवेदना, इन्द्रिय, मानस एवं योगज ऐसे चार प्रकार के प्रत्यक्ष माने हैं, किंतु बौद्ध दार्शनिक धर्मकीर्ति के अनुसार ये प्रत्यक्ष निर्विकल्पक ही होते हैं। निर्विकल्पक होने से व्यवसायात्मक (निश्चयात्मक) नहीं हो सकते और जो व्यवसायात्मक नहीं है, वह स्वविषय का उपदर्शक भी नहीं हो सकता है और जो स्वविषय का उपदर्शक नहीं हो सकता है वह अर्थ का प्रापक भी नहीं हो सकता है ट्ठौर जो अर्थ का प्रापक नहीं है, वह अर्थ से अविसंवादक कैसे हो सकता है? इस प्रकार विद्यानंद धर्मकीर्ति की प्रत्यक्षप्रमाण की अविसंवादकता का खण्डन कर देते हैं।
___अनुमान के संदर्भ में भी विद्यानंद लिखते हैं कि बौद्धों के अनुसार अनुमान भ्रान्त है और यदि अनुमान भ्रान्त है तो फिर वह अविसंवादक कैसे हो सकता है? दूसरे अनुमान का आलम्बन सामान्य है और बौद्ध परम्परा के अनुसार सामान्य, मिथ्या, या अवास्तविक है। सामान्य के आलम्बन के बिना अनुमान संभव ही नहीं है, अतः उसके अविसंवादक होने का प्रश्न ही नहीं उठता है। इस प्रकार विद्यानंद धर्मकीर्ति के प्रमाण के अविसंवादक नामक लक्षण का उन्हें मान्य प्रत्यक्ष और अनुमान दोनों ही प्रमाणों से खण्डन कर देते हैं। विद्यानंद का कहना है कि बौद्ध प्रमाणव्यवस्था में प्रमाण का अविसंवादक नामक लक्षण घटित नहीं हो सकता है। धर्मकीर्ति के प्रमाण के अविसंवादक लक्षण का खण्डन जैन दार्शनिक विद्यानंद के अतिरिक्त अभयदेवसूरि ने अपनी सन्मतितर्कप्रकरण की तत्त्वबोधायनीटीका में, सिद्धर्षि ने न्यायावतार की विवृत्ति में, प्रभाचंद्र ने प्रमेयकमलमार्तण्ड में तथा हेमचंद्र ने प्रमाणमीमांसा की स्वोपज्ञटीका में इसका खण्डन किया है। विस्तार भय से यहां उस समस्त चर्चा में जाना सम्भव नहीं है। ज्ञातव्य है कि जैन दार्शनिकों ने धर्मकीर्ति के प्रमाणलक्षण में अविसंवादकता का जो खण्डन किया है वह बौद्धों की पारमार्थिक दृष्टि के आधार पर ही किया है। जैनों का कथन है कि अविसंवादिता नामक प्रमाणलक्षण पारमार्थिकदृष्टि से घटित होना चाहिए, तभी अविसंवादक ज्ञान को प्रमाण का सामान्य लक्षण स्वीकार किया जा सकता है। किंतु यह भी सत्य है कि धर्मकीर्ति आदि बौद्ध दार्शनिक प्रमाण के अविसंवादिता नामक लक्षण को सांव्यहारिक दृष्टि से ही घटित करते हैं, पारमार्थिक दृष्टि से नहीं, क्योंकि बौद्ध दार्शनिक प्रमाणव्यवस्था को सांव्यवहारिक आधार पर ही मान्य करते हैं, परमार्थिक दृष्टि से तो उनके यहां प्रमाण-प्रमेय व्यवस्था बनती ही नहीं है।
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