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जैन परम्परा, बौद्ध प्रमाणशास्त्र से यदि परिचित हुई है तो वह प्रथमतः दिनांग और फिर धर्मकीर्ति से ही विशेष रूप से परिचित प्रतीत होती है, क्योंकि जैन आचार्यों ने बौद्ध प्रमाण पत्र की समीक्षा में इन्हीं के ग्रंथों को मुख्य आधार बनाया है, यद्यपि धर्मोत्तर, अर्चट, शान्तरक्षित और कमलशील के भी संदर्भ जैन ग्रंथों में मिलते हैं। तिब्बती परम्परा के अनुसार दिनांग के प्रमाणसमुच्चय के अतिरिक्त प्रमाणशास्त्र पर उनकी जो दूसरी प्रमुख कृति है, वह न्यायप्रवेश है। यद्यपि कुछ विद्वानों ने उसके कर्ता दिनांग के शिष्य शंकरस्वामी को माना है। बौद्ध प्रमाणशास्त्र में न्यायप्रवेश ही एक ऐसा ग्रंथ है, जिस पर जैन आचार्यों ने टीकाएं रची। आचार्य हरिभद्रसूरि ने (लगभग आठवीं शताब्दी की) इस न्यायप्रवेश पर वृत्ति लिखी, जो उपलब्ध है। आगे चलकर हरिभद्र की इस न्यायप्रवेशवृत्ति पर पार्श्वदेवगणि ने पंजिका की रचना की। यद्यपि ये दोनों टीका ग्रंथ जैन परम्परा के आचार्यों की रचनाएं हैं, किंतु ये समीक्षात्मक न होकर विवेचनात्मक ही हैं। समीक्षा की दृष्टि से दिनांग के प्रमाणसमुच्चय के पश्चात् जैन आचार्यों ने धर्मकीर्ति के प्रमाणवार्तिक को ही अधिक उद्धृत किया है। ज्ञातव्य है कि प्रमाणवार्तिक दिनांग के प्रमाणसमुच्चय की ही टीका है, फिर भी जैन आचार्यों ने अपनी बौद्ध प्रमाणशास्त्र की समीक्षा में इसको ही प्रमुख आधार बनाया है। धर्मकीर्ति के दूसरे दो ग्रंथ जो जैन आचार्यों की समीक्षा के विषय रहे हैं वे हैं प्रमाणविनिश्चय और संबंधपरीक्षा। प्रमाणविनिश्चय वस्तुतः उनके प्रमाणवार्तिक का ही संक्षिप्त रूप है और इसके आधे से अधिक श्लोक प्रमाणवार्तिक से ही ग्रहण किए गए हैं। धर्मकीर्ति की दूसरी कृति संबंधपरीक्षा वर्तमान में अनुपलब्ध है, किंतु इसका कुछ अंश, जो आज सुरक्षित है उसका श्रेय जैनाचार्यों को ही है। दिगम्बर जैनाचार्य प्रभाचंद्र के प्रमेयकमलमार्तंड (10वीं शती) में न केवल इसकी बाईस कारिकायें उपलब्ध हैं, अपितु उन्होंने उन पर व्याख्या भी की है। इसी प्रकार श्वेताम्बर विद्वान् बृहद्गच्छीय वादिदेवसूरि (11वीं शती) ने भी स्याद्वादरत्नाकर में इसकी कुछ कारिकाएं उद्धृत की है। यह बात ध्यान देने योग्य है कि जहां जैन ग्रंथ द्वादशारनयचक्र की मूलकारिकाओं की पुनर्रचना का आधार धर्मकीर्ति के ग्रंथों की तिब्बती स्रोत रहे हैं, वहीं धर्मकीर्ति की संबंधपरीक्षा के कुछ अंशों के संरक्षण का आधार प्रभाचंद्र का प्रमेयकमलमार्तंड है। जैन परम्परा में बौद्ध प्रमाणमीमांसा की जो समीक्षा उपलब्ध होती है, उसमें सिद्धसेन के न्यायावतार और मल्लवादी के द्वादशारनयचक्र के बाद उसके टीकाकार सिंहसूरि का क्रम आता है, किंतु सिंहसूरि की द्वादशारनयचक्र पर लिखी गई