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________________ टीका में भी बौद्ध परम्परा का जो खण्डन हुआ है, वह वसुबंधु और दिग्नांग के दार्शनिक मंतव्यों को ही पूर्वपक्ष के रूप में रखकर किया गया है। उन्होंने बौद्धों के प्रमाणलक्षण एवं उनकी प्रत्यक्ष प्रमाण की अवधारणा की विभिन्न दृष्टिकोणों से समीक्षा की, किंतु सिंहसूरि ने कहीं भी धर्मकीर्ति को उद्धृत नहीं किया है। उन्होंने मुख्यतया वसुबंधु और दिग्नांग के मंतव्यों को ही अपनी समीक्षा का विषय बनाया, इससे यह सिद्ध होता है कि सिंहसूरि वसुबंधु एवं दिनांग के परवर्ती किंतु धर्मकीर्ति के पूर्ववर्ती रहे हैं। इनका काल छठीं शताब्दी का उत्तरार्ध या सातवीं शताब्दी का पूर्वार्ध माना जाता है। जैन प्रमाणशास्त्र के इतिहास की दृष्टि से सिद्धसेन और मल्लवादी के पश्चात् इन्हीं का क्रम आता है, क्योंकि ये मल्लवादी के द्वादशारनयचक्र के टीकाकार भी हैं। पांचवीं-छठी शताब्दी पश्चात् से जैन आचार्यों ने बौद्ध तत्त्वमीमांसा और प्रमाणमीमांसा की समीक्षा की, इसी क्रम में यहां हम प्रमुख रूप से उन्हीं आचार्यों का उल्लेख करेंगे जिन्होंने न केवल जैन प्रमाणशास्त्र के विकास में अपना अवदान दिया है, अपितु प्रमाणशास्त्रीय बौद्ध मंतव्यों की समीक्षा भी की है अथवा उनके प्रमाणशास्त्रीय मंतव्यों की समीक्षा बौद्ध आचार्यों ने की। सिद्धसेन, मल्लवादी और सिंहसूरि के पश्चात् आचार्य सुमति (लगभग 7वीं शती) हुए हैं, ये जैनधर्म की यापनीय परम्परा के आचार्य रहे हैं। दुर्भाग्य से आज उनकी कोई भी कृति उपलब्ध नहीं होती है, किंतु बौद्ध दार्शनिक शांतरक्षित (आठवीं शती) ने अपने ग्रंथ तत्त्वसंग्रह में सुमति के नामोल्लेखपूर्वक उनके प्रमाणशास्त्रीय मंतव्यों की समीक्षा की है। ज्ञातव्य है कि आचार्य सुमति ने श्वेताम्बर आचार्य सिद्धसेन के सन्मतितर्क पर एक विवृत्ति भी रची थी जो आज अनुपलब्ध है, इससे लगता है कि आचार्य सुमति उस उदार यापनीय परम्परा के आचार्य रहे हैं, जो आज लुप्त हो चुकी है। इसी काल के अर्थात् सातवीं-आठवीं शती के अन्य जैन नैयायिक पात्रकेसरी हैं। इनकी प्रसिद्ध रचना त्रिलक्षणकदर्थन है। इसमें बौद्धों के त्रैरूप्य हेतु का विस्तार से खण्डन किया गया है। जहां बौद्ध दार्शनिक शांतरक्षित ने अपने तत्त्वसंग्रह (136) में इनके ग्रंथ से एक श्लोक उद्धृत किया है, वहीं अकलंक आदि जैन दार्शनिकों ने भी पात्रकेसरी के त्रिलक्षणकदर्थन के श्लोकों को उद्धृत करके बौद्धों के त्रिरूपहेतु का खण्डन किया है। लगभग इसी काल में श्वेताम्बर जैन परम्परा में आचार्य हरिभद्रसूरि (आठवीं शती) हुए हैं। हरिभद्रसूरि ने शास्त्रवार्तासमुच्चय और षट्दर्शनसमुच्चय जैसे ग्रंथों में बौद्ध परम्परा के मंतव्यों का निर्देश किया है, किंतु वे एक समन्वयवादी आचार्य रहे 23
SR No.006189
Book TitleBauddh Dharm Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages112
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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