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अपने धर्मकीर्ति तक ही सीमित रखने का प्रयत्न करेंगे। क्योंकि अकलंक (आठवीं शती) आदि जैन आचार्यों ने दिनांग एंव धर्मकीर्ति की स्थापनाओं को ही अपने खण्डन का विषय बनाया है।
जहां तक जैन प्रमाणशास्त्र का प्रश्न है, उसका प्रारम्भ सिद्धसेन दिवाकर के न्यायावतार से होता है। सिद्धसेनदिवाकर को लगभग चौथी-पांचवीं शताब्दी का विद्वान् माना जाता है। उनका न्यायावतार जैन प्रमाणशास्त्र का प्रथम ग्रंथ है। इसमें प्रमाण की परिभाषा के साथ-साथ प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम (शब्द) प्रमाणों का उल्लेख हुआ है, यद्यपि इस ग्रंथ की मूल कारिकाओं में बौद्ध प्रमाणशास्त्र के खण्डन का स्पष्ट रूप से कोई निर्देश नहीं है। फिर भी स्वपराभासिज्ञानं प्रमाणम्' कहकर प्रमाण को मात्र स्वप्रकाशक मानने वाली बौद्ध परम्परा के खण्डन का संकेत अवश्य मिलता है, किंतु बौद्ध प्रमाणशास्त्र की स्पष्ट समीक्षा का इस ग्रंथ में प्रायः अभाव ही है। इस ग्रंथ के अवलोकन से इतना तो निश्चित हो जाता है कि सिद्धसेन दिवाकर बौद्ध प्रमाणशास्त्र से परिचित अवश्य थे, क्योंकि इस ग्रंथ में कहीं बौद्धमत से समरूपता और कहीं विरोध परिलक्षित होता है। यद्यपि जैन परम्परा में सिद्धसेन के पूर्व उमास्वाति (तीसरी शती) ने तत्त्वार्थसूत्र में ज्ञान के आगमिक पांच प्रकारों का उल्लेख करके अगले सूत्र में उन्हें प्रमाण के रूप में उल्लेखित किया है, साथ ही प्रमाण के प्रत्यक्ष और परोक्ष ऐसे दो भेदों का भी उल्लेख किया है, फि र भी उमास्वाति को जैन न्याय के आद्यप्रणेता के रूप में स्वीकार करना सम्भव नहीं है, क्योंकि उनके तत्त्वार्थसूत्र और उसके स्वोपज्ञभाष्य में इन दो सूत्रों के अतिरिक्त प्रमाण सम्बंधी कोई विशेष चर्चा उपलब्ध नहीं है। उनके पश्चात् सिद्धसेन दिवाकर ने यद्यपि जैन प्रमाणव्यवस्था के सम्बंध में एक स्वतंत्र ग्रंथ की रचना तो की, किंतु उन्होंने प्रमाणमीमांसा सम्बंधी बौद्ध एवं अन्य दर्शनों की मान्यताओं की समीक्षा का कोई प्रयत्न नहीं किया। जैन परम्परा में बौद्ध प्रमाणमीमांसा की समीक्षा यदि सर्वप्रथम किसी ने की है, तो वे द्वादशारनयचक्र के प्रणेता मल्लवादी (लगभग पांचवीं शती) हैं। मल्लवादी के दिग्नांग के प्रमाणसमुच्चय से अनेक संदर्भो को उद्धृत करके उनकी समीक्षा की है। मल्लवादी दिनांग से परवर्ती और धर्मकीर्ति से पूर्ववर्ती हैं। बौद्ध विद्वानों ने दिनांग का काल ईसा की पांचवीं शती माना है, किंतु द्वादशारनयचक्र की प्रशस्ति से मल्लवादी का काल विक्रम सं. 414 तदनुसार ई. सन् 357 माना है। इस दृष्टि से दिग्नांग को भी ईसा की चौथी शती के उत्तरार्द्ध से पांचवीं शती के पूर्वार्द्ध का मानना होगा।
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