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में समानता परिलक्षित होती है, फिर भी जहां बौद्धों की अनिर्वचनीयता नकारात्मक है, वहां वेदांत की अनिर्वचनीयता को भी सापेक्ष माना है, वे उसे कथंचित् अवक्तव्य और कथंचित् वक्तव्य मानते हैं। जैनों की अवक्तव्यता भाषागत समस्या है, जबकि बौद्धों और वेदान्तियों की अनिर्वचनीयता स्वरूपात्मक है, किंतु जहां बौद्ध उसे नि:स्वभाव मानता है, वहां वेदांत अनिर्वचनियता को सत्ता का स्वरूप लक्षण मानता है।
4.
जहां बौद्ध विज्ञानवाद में क्षणक्षयी चित्त (विज्ञान) को ही परमतत्त्व माना गया है, वहां जैन दर्शन में आत्मा को महत्त्व देते हुए भी जड़ और चेतन दोनों की स्वतंत्र सत्ता मानी गई है, सांख्यों ने भी पुरुष एवं प्रकृति के रूप में इस द्वैतवाद को स्वीकारा है। न्याय, वैशेषिक और मीमांसक बहुतत्त्ववादी हैं, किंतु वे भी चित् और अचित् दोनों का स्वतंत्र अस्तित्व मानते हैं। जैन चेतन (जीव ) और जड़ (अजीव) दोनों के सम्बंध में बहुतत्त्ववादी हैं, यद्यपि वे आकाश, धर्म और अधर्म को एक-एक स्वतंत्र तत्त्व ही मानते हैं। सांख्य पुरुष की अनेकता और प्रकृति का एकत्व मानता है। जबकि विज्ञानवादी और शून्यवादी बौद्ध तथा शांकर वेदांत अद्वैतवादी हैं।
5.
बौद्ध विज्ञानवाद जहां बाह्यार्थ का निषेध करता है, वहां जैन दर्शन, नैयायिक एवं मीमांसक के समान बाह्यार्थ की सत्ता को स्वीकार करता है। ज्ञातव्य है कि बौद्धों में भी सर्वास्तिवादी - सौत्रान्तिक एवं वैभाषिक बाह्यार्थ की सत्ता को स्वीकार करते हैं, फिर भी सौत्रान्तिक उसे प्रत्यक्ष का विषय न मानकर अनुमेय ही मानते हैं।
6. वस्तु की बहुआयामिता को आधार बनाकर जैनों ने अनेकांतवाद की स्थापना की। मीमांसकों ने भी इसका समर्थन किया, किंतु बौद्ध निषेधमुखी होने से अनेकांत की अपेक्षा शून्यवाद की दिशा में अग्रसर हो गए, फिर भी शून्यवाद और अनेकांतवाद दोनों ही एकांत का विरोध तो समान रूप से करते हैं। अंतर यह है कि बौद्ध एकान्तवाद का खण्डन जहां निषेधमुख से करते हैं, वहां जैन प्रतिपक्ष में निषेधमुख से और स्वपक्ष में विधिमुख से करते हैं।
7.
शब्द और अर्थ के मध्य सम्बंध को लेकर जहां मीमांसक तादात्म्य सम्बंध मानते हैं, न्याय-वैशेषिक तदुत्पत्ति सम्बंध मानते हैं और जैन वाच्य वाचक सम्बंध मानते हैं, वहीं बौद्ध शब्द और अर्थ में किसी भी प्रकार का सम्बंध नहीं मानते हैं। वे अपोहवाद के माध्यम से शब्द द्वारा अर्थबोध को घटित करते हैं, किंतु शब्द को मात्र अपोहपरक या निषेधपरक मानने से उसकी वाच्यता सामर्थ्य अपूर्ण रहती है। वस्तुतः शब्द का विधिपरक
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