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मागधी, पाली, अर्धमागधी, शौरसेनी और महाराष्ट्री की ऐसी खिचड़ी होगी, जिसे शौरसेनी न कहकर अर्धमागधी कहना ही उचित होगा, क्योंकि अर्धमागधी का ही यह लक्षण बताया गया है। ज्ञातव्य है कि अर्धमागधी का लक्षण यही है कि उसमें मागधी के साथ-साथ अन्य क्षेत्रीय बोलियों के शब्द - रूप भी पाये जाते हैं।
10 'मैं शौरसेनी को ही मूल प्राकृत मानता हूँ, मागधी भी लगभग इतनी ही प्राचीन है, परन्तु वस्तुतः उसमें पूर्वी उच्चारण -भेद के अतिरिक्त कोई अन्तर नहीं है। मूलतः यह भी शौरसेनी ही है.'
मैं प्रो. व्यासजी से सविनय यह पूछना चाहूँगा कि यदि शौरसेनी ही मूल प्राकृत भाषा है, तो क्या इसका कोई अभिलेखीय या साहित्यिक प्रमाण है ? 'प्रकृतिः शौरसेनी' के जिस सूत्र को लेकर शौरसेनी को मूल प्राकृत भाषा कहा जा रहा है, उसमें 'प्रकृति' शब्द का क्या अर्थ है, इसकी विस्तृत समीक्षा भी हम पूर्व लेख 'जैन आगमों की मूल भाषा अर्धमागधी या शौरसेनी' में कर चुके हैं।
पुनः, प्रो. व्यासजी का यह कथन कि मागधी भी लगभग इतनी ही प्राचीन है, यही सिद्ध करता है कि मागधी प्राकृत शौरसेनी से उत्पन्न नहीं हुई है। प्रो. व्यासजी दबी जबान से यह तो स्वीकार करते हैं कि 'मागधी भी इतनी ही प्राचीन है' ; किन्तु वे स्पष्ट रूप से यह क्यों नहीं स्वीकार करते कि मागधी शौरसेनी की अपेक्षा प्राचीन है। अशोक के अभिलेख, जो ई.पू. तीसरी शती में लिखे गए, वे मागधी की प्राचीनता को स्पष्ट रूप से उजागर कर रहे हैं, जबकि शौरसेनी का कोई भी ग्रन्थ या ग्रन्थांश ई. सन् की प्रथम - द्वितीय शती के पूर्व का नहीं है। यदि साहित्यिक और अभिलेखीय साक्ष्यों के आधार पर मागधी प्राकृत शौरसेनी की अपेक्षा कम से कम 300 वर्ष प्राचीन है, तो फिर यह मानना होगा कि वह मागधी ही मूल प्राकृत भाषा है।
पुनः, प्रो. व्यासजी का यह कथन कि 'पूर्वीय उच्चारण भेद के अतिरिक्त मागधी और शौरसेनी में कोई अन्तर नहीं है। यह कथन मूलतः वह भी शौरसेनी ही है', युक्तिसंगत नहीं है। हमें यह ध्यान रखना होगा कि उच्चारण भेद और प्रत्ययों के भेद ही विभिन्न प्राकृतों के अन्तर का आधार है। यदि भेद नहीं होते, तो फिर विभिन्न प्राकृतों में कोई अन्तर किया ही नहीं जा सकता था और सभी प्राकृतें एक ही होतीं । वस्तुतः, प्राकृत के मागधी, पाली, अर्धमागधी, शौरसेनी, महाराष्ट्री आदि जो विविध भेद हैं, वे अपने-अपने क्षेत्रीय उच्चारण
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